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240 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
यह सत्य है कि गृहस्थ इन तीनों की यथायोग्य सेवा तथा सहायता करता है; किन्तु इसमें वह विवेक रखता है। पंचमहाव्रतधारी साधुओं को वह श्रद्धाभक्तिपूर्वक आहारदि से प्रतिलाभित करता है, अतिथि का वह स्नेहभावपूर्वक योग्य सत्कार करता है और दीन-दुखी मानवों को वत्सलतापूर्वक अनुकम्पा से दान देकर उनकी सहायता करता है।
इसका कारण यह है कि साधु और दीन-भिक्षुक का स्तर एक सा नहीं होता, उनमें आकाश-पाताल का अन्तर होता है। इसीलिए वह विवेक पूर्वक सहायता-सहयोग देता है।
__ अतिथि-सत्कार गृहस्थ की उदारता और उदात्त भावना का प्रगटीकरण है। उदारता नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। उदार व्यक्ति ही नैतिक हो सकता
है।
(20-21) अनभिनिवेशिता और गुणानुराग'
__ अभिनिवेश का अभिप्राय है-आग्रह, दुराग्रह, कदाग्रह, अपनी मान्यता को नहीं छोड़ना, उसी का हठ करते रहना, चाहे वह मिथ्या अथवा हानिकारक ही हो। ऐसा हठ नैतिक जीवन के लिए हानिकर है, विवेक और प्रज्ञा के विपरीत है, इसीलिए आचार्य ने सूत्र दिया-सदा ही अनाग्रही बनकर रहे।
जिस व्यक्ति को अपने पक्ष का दुराग्रह नहीं होगा, उसी में गुणानुरागिता का प्रवेश होगा, वह दूसरे व्यक्ति के सद्गुणों को ग्रहण करके अपने जीवन को सद्गुणों से भर लेगा।
सद्गुणों का क्षेत्र बहुत व्यापक है-लगन, निष्ठा, एकाग्रता, दया, अनुकम्पा आदि सभी सद्गुण हैं। यह सभी सद्गुण व्यक्ति को नैतिक और धार्मिक जीवन जीने में आधार स्तम्भ के समान हैं और इन्हीं से उसके व्यावहारिक जीवन तथा आचरण में चमक आती है। वह नैतिक गतिप्रगति करता है। (22) देश-कालोचित आचरण ___ व्यावहारिक जीवन में सर्वाधिक महत्व आचरण का है। आचार्य जिनभद्र ने कहा है-ववहारोऽपिहु बलवं'। व्यक्ति जैसा आचरण करता है उसी के 1. सदाऽनभिनिविष्टश्च, पक्षपाती गुणेषु च।
-योगशास्त्र, 1/53 2. उद्धृत-साधना के सूत्र, श्री मधुकर मुनि, पृष्ठ 264