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________________ जैन दृष्टि सम्मत - व्यावहारिक नीति के सोपान / 239 ( 18 ) धर्ममर्यादित अर्थ - कामसेवन गृहस्थ जीवन के सुचारु संचालन के लिए अर्थ (धन) तो आवश्यक है ही साथ ही काम ( कामनाओं - इच्छाओं) की संतुष्टि भी करनी ही पड़ती है किंतु नैतिक विचारणा के अनुसार इन दोनों ( काम और अर्थ ) को अनियंत्रित नहीं छोड़ा जा सकता; क्योंकि अनियन्त्रित रूप में यह दोनों ही भयावह हैं, अनैतिक हैं। इसीलिए इन दोनों पर धर्म का - नीति का नियन्त्रण आवश्यक है । आचार्य ने इसके लिए सूत्र दिया - अविरोधी भाव से त्रिवर्ग का सेवन करे । त्रिवर्ग का अभिप्राय है- धर्म, अर्थ और काम । अविरोधी भाव का नीतिपरक रहस्यार्थ है-धर्म द्वारा किया जाने वाला सन्तुलन और मर्यादा स्थापन तथा नियन्त्रण। अर्थ और काम दोनों की ही उपमा दुष्ट अश्व से दी जा सकती है । जिस प्रकार दुष्ट अश्व सवार को गर्त में गिरा देता है, उसी प्रकार अनियन्त्रित अर्थ और काम भी मानव को अनैतिकता के गर्त में गिरा देते हैं, उसे अनैतिक आचरण की ओर धकेल देते हैं । इसीलिए इन पर धर्म की नीति की लगाम अथवा अंकुश सदैव रहना आवश्यक है जिससे वे मर्यादित रह सकें। यही इस सूत्र का हार्द है जो नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है । ( 19 ) अतिथि सत्कार ' अतिथि सत्कार भारत की प्राचीन परम्परा है। वैदिक, बौद्ध और जैन तीनों ही परम्पराएँ इसे गृहस्थी के कर्तव्य के रूप में मान्य करती हैं । वैदिक परम्परा के शास्त्रों में तो इसका अत्यधिक महत्व बताया है । अतिथि का अभिप्राय है, जिसके आगमन की तिथि - दिन निश्चित न हो । ऐसा व्यक्ति कोई भी हो सकता है। आचार्य ने अपने सूत्र में अतिथि को तीन वर्गों में विभाजित किया है- (1) अतिथि, (2) साधु और ( 3 ) दीन असहायजन । 1. अन्योन्याऽप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयन् । 2. यथावदतिथौ साधौ, दीने च प्रतिपत्तिकृत् । - योगशास्त्र, 1/52 - योगशास्त्र, 1/53
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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