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________________ 238 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन हित-मित और अल्पाहार की विशेषता बताते हुए कहा गया है कि ऐसा भोजन करने वाले को चिकित्सा की आवश्यकता नहीं पड़ती। भोजन का व्यक्ति के मन पर भी गहरा असर होता है। कहा भी है-“जैसा खावे अन्न, वैसा बने मन-और जैसा पीवे पानी, वैसी बोले वानी।" तामसिक भोजन से बुद्धि में विकार आता है और शरीर में आलस्य। इसी प्रकार राजसी भोजन मन में उत्तेजना उत्पन्न करता है। इसीलिए व्यक्ति को सदा शुद्ध सात्विक भोजन करना चाहिए, जिससे शरीर में स्फूर्ति रहे और मन बुद्धि में शुभ विचारों का संचार होता रहे। दूसरा प्रमुख विचारणीय तत्व है-भोजन का समय। इस विषय में नीतिकारों का मत है-जब भूख लगे, वही भोजन का समय है। ___ आधुनिक युग में भोजन का समय नियत है। कारखाने में मजदूरो को नियम समय पर भोजन का अवकाश दिया जाता है। इसी प्रकार की व्यवस्था बैकों तथा अन्य आफिसों में भी है और यही रवैया साधारणतया घरों में भी चल रहा है। किन्तु फिर भी आजकल के व्यस्त जीवन में मनुष्य भोजन के विषय में बहुत ही अनियमित हो गया है। यह अनियमितता अपचन, गैस आदि बीमारियां उत्पन्न करती है। सद्गृहस्थ के लिए सामान्यतः प्रातः का भोजन 12 बजे तक तथा सायंकालीन भोजन सूर्यास्त से पूर्व कर लेने का जैन नीति में विधान है। नीतिवान पुरुष का लक्ष्य नैतिक जीवन बिताना है और इसके लिए उसे स्वस्थ रहना जरूरी है। स्वास्थ्य ही पहला सुख है यह लौकिक उक्ति है। स्थानांग में भी आरोग्य को दस सुखों में प्रथम सुख माना है और चरक संहिता में इसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थों का मूल कहा गया है। नैतिक जीवन का लक्ष्य भी धर्म और चरम पुरुषार्थ मोक्ष की ओर गति-प्रगति करना तथा उसे प्राप्त करना है। इसीलिए नीतिवान पुरुष सदा ही आहार का विवेक रखता है। 1. हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। न ते विज्जं तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छिगा ॥ 2. बुभुक्षाकालो भोजनकालः। 3. स्थानांग सूत्र, स्थान 10 4. धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्। -ओघनियुक्ति, 578 -नीति वाक्यामृत -चरक संहिता, 15
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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