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________________ 236 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन ( 13 ) आय - व्यय का संतुलन' गृहस्थ के लिए धन सदा से आवश्यक रहा है, क्योंकि इससे उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, इसलिए वह धन का उपार्जन करता है और आवश्यकताओं पर उसका व्यय करता है I लेकिन आज का युग अर्थप्रधान है। फैशन, आडम्बर और शो - प्रवृत्ति से मानव ग्रसित होता जा रहा है । आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रदत्त फ्रिज, टी. वी. आदि नवीनतम उपकरणों से वह घर को सुसज्जित करना चाहता है । इन्हीं के आधार पर उसक जीवन स्तर मापा जाता है, समाज में उसकी प्रशंसा होती है, उसे सम्मान -सत्कार मिलता है। किन्तु ये सभी साधन खर्चीले हैं। प्रत्येक व्यक्ति इन्हें नहीं खरीद सकता । जिसकी आय कम है, वह इन्हें कैसे खरीदे ? यदि कर्ज लेकर अथवा किश्तों पर इन्हें खरीदता है तो उसे कर्ज चुकाने की चिन्ता लग जाती है, घर की आवश्यक वस्तुओं में कटौती करनी पड़ती है, वह परेशानियों में घिर जाता है। इन सब फिक्रों और दुविधापूर्ण स्थिति से बचने के लिए आचार्य ने सूत्र दिया - अपनी आय के अनुसार व्यय करे। दूसरे शब्दों में, आय-व्यय में संतुलन बनाये रखे, उचित समायोजनपूर्ण स्थिति का निर्माण करे। जिससे वह सुख-शांतिपूर्ण नैतिक जीवन व्यतीत कर सके । आचार्य का यह सूत्र आधुनिक आडम्बरप्रिय मानव के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, जीवन में उतारने योग्य है । ( 14 ) वित्तीय स्थिति के अनुसार वेशभूषा वेशभूषा का अभिप्राय आधुनिक युग में सभी प्रकार के बाहरी आडम्बरों से समझना चाहिए । इस सूत्र द्वारा यह सूचन किया गया है कि व्यक्ति को अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार ही अपने जीवन का स्तर रखना चाहिए। वैसे ही वस्त्र आदि पहनने चाहिए। आमदनी से अधिक वस्त्रों पर खर्च करना, अधिक दिखावा करना अन्ततः व्यक्ति को परेशानी में डाल देता है । भारतीय समाज में मध्यम वित्तीय परिवार भी अपने को उच्चस्तरीय दिखाने का प्रयत्न करते हैं, वस्त्र आदि वैसे पहनते हैं । यह दिखावा ही उनकी त्रासद स्थिति का कारण बन जाता है । मार्गानुसारी को सदा ही इस शोबाजी से बचना चाहिए । 1. व्ययमायोचितं कुर्वन् । - योगशास्त्र, 1/51
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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