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________________ जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान / 235 नीति के अनुसार भी माता-पिता की सेवा करना मानव का प्रथम कर्तव्य माना गया है, जिसे पूरा करना नैतिक जीवन के लिए अनिवार्य बताया गया है।' (11) उपद्रवग्रस्त स्थान का त्याग ___मार्गानुसारी को उपद्रवग्रस्त स्थान का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि उपद्रवों की स्थिति में व्यक्ति का जीवन संकटों से घिर जाता है। प्राचीनकाल में प्रमुख रूप से दो प्रकार के उपद्रव होते थे-(1) स्वचक्र अथवा परचक्र और (2) महामारी। स्वचक्र का अभिप्राय है-अपने देश का शासन ही अन्यायी हो, प्रजा में संघर्ष उत्पन्न करे, मनमाने टैक्स लगाये, शोषण करे तथा और भी अनीतिपूर्ण कार्य करे। परचक्र का अभिप्राय है-दूसरा कोई राजा अपने देश पर आक्रमण करके प्रजा को लटे। . आधुनिक युग में चिकित्सा विज्ञान इतना विकसित हो चुका है कि महामारियों का विशेष भय नहीं रहा, किन्तु स्वचक्र और परचक्र का कुछ भय अब भी है। इनके अतिरिक्त असामाजिक तत्वों के उपद्रव आदि और बढ़ गये लेकिन मार्गानुसारी का कर्तव्य है कि ऐसे रगड़े-झगड़े और बखेड़े वाले स्थानों से दूर रहे। मूल बात यह है कि किसी भी प्रकार से अपने चित्त में विक्षोभ उत्पन्न न होने दे। (12) निन्दनीय प्रवृत्ति का त्याग ___ निन्दनीय प्रवृत्ति का अभिप्राय है-ऐसा आचरण जिससे समाज में व्यक्ति का अपयश हो, लोग उससे घृणा करने लगें, तिरस्कार करें। ऐसे काम अनेक हो सकते हैं जैसे क्लेश, संघर्ष, कलह आदि तथा अतिशय लोभ, दहेज के वशीभूत होकर घर की बहू को जिन्दा ही जला देना, उत्पीड़न करना आदि। यह सत्य है कि कोई भी मानव तिरस्कार नहीं पाना चाहता, सभी को प्रशंसा प्रिय लगती है, फिर भी लोभ, क्रोध आदि कषायों के आवेश में सामान्य पुरुष ऐसी प्रवृत्तियां कर बैठते हैं, जो निन्दनीय होती हैं। लेकिन मार्गानुसारी विवेकी होते हैं, वह अपने आचरण को विवेक दृष्टि से संचालित करते हैं अतः कोई निन्दनीय काम नहीं करते। 1. It is the first and foremost duty of a man to serve his parents. --Experimental Morality
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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