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________________ जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान / 231 किन्तु नीतिशास्त्र इतनी गहराई में नहीं आता। गृहस्थ भी नीतिशास्त्र के अनुसार नैतिक जीवन व्यतीत कर सकता है। व्यापार आदि में भी ईमानदारी की नीति से काम ले सकता है। अग्नि आदि के प्रयोग में सावधानी रख सकता है। पापभीरुता गुण का नीतिशास्त्रीय अर्थ इतना ही है कि व्यक्ति कभी भी कोई अनैतिक कार्य न करे, उन कार्यो से सदा बचता रहे। अशुभ से-पाप से बचना ही पापभीरुता है। (5) देशप्रसिद्ध आचार-पालनता' यह गुण सामाजिकता से प्रत्यक्ष संबंधित है। इसका अभिप्राय है कि व्यक्ति ने जिस देश-समाज में जन्म लिया है उसमें प्रचलित सभ्यता संस्कृति और आचार परम्परा का पालन उसे करना चाहिए। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि समाज में प्रचलित अन्ध-विश्वासों, रूढ़ियों, हानिकारक परम्पराओं का भी पालन करना चाहिए। वे तो त्याज्य हैं, अनैतिक हैं। ऐसी परम्पराओं के पालन का नैतिक जीवन में कोई स्थान नहीं है। नीतिवान सक्ति तो समाज के लिए तथा अपने लिए भी हितकारी तथा नैतिकता को गति-प्रगति देने वाले, शुभ की ओर अग्रसर करने वाले आचारों का पालन करता है। यही इस सूत्र का अभिप्राय है। (6) अनिन्दकत्व निन्दा का अर्थ है-दूसरों की बुराई करना, उनके दोषों-दुर्गुणों का बखान। जो दोष उनमें नहीं हैं उन्हें आरोपित करना, बढ़ा-चढ़ाकर बताना।। निन्दा दोषदृष्टि है। मानव में दो प्रकार की दृष्टिया हैं-(1) गुण दृष्टि और (2) दोष दृष्टि। गुणदृष्टि नैतिक और दोषदृष्टि अनैतिक है। दोषदृष्टि वाले व्यक्तियों का जीवन स्वयं दोषों से भर जाता है। .. गुणदृष्टि वाले व्यक्ति पापी से पापी और दुर्गुणी व्यक्ति में भी कोई न कोई गुण ढूंढ निकालते हैं, क्योंकि दृष्टि गुणों पर रहती है और जीवन में 1. (क) प्रसिद्धं च देशाचारं समाचरन् । --योगशास्त्र, 1/48 (ख) तुलना करिये। While you are in Rome, do as Romans do.
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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