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230 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
विवाह योग्य वय (आयु) के लिए बताया गया है(1) बालभाव (बचपन) समाप्त होकर युवावस्था आने पर (2) नौ अंग प्रतिबुद्ध (जाग्रत-समर्थ) होने पर (3) गृहस्थ संबंधी भोग भोगने में समर्थ होने पर शास्त्रों के अनुसार यही विवाह की योग्य आयु है।
इन उद्धरणों से बाल-विवाह, वृद्धविवाह, अनमेल विवाह आदि सभी प्रकार के विवाहों का स्वयं ही निषेध हो जाता है। ___ तथ्यात्मक दृष्टि से ऐसे सभी विवाह अनैतिकता को बढ़ावा देने वाले होते हैं। इन विवाहों से गुप्त दुराचार-व्यभिचार की प्रवृत्ति पनपती है जो समाज में अनैतिकता का ही प्रसार करती है।
इसके विपरीत समान कुल-शील वाली पत्नी सुख-दुःख में साथ देने वाली, धर्मसहायिका और पति के लिए सुखकारिणी होती है। साथ ही पति भी पत्नी को सुख देने वाला होता है। दोनों के ही दाम्पत्य जीवन में सुख-शान्ति की सरिता प्रवाहित होती है। (4) पापभीरुता
पाप की एक सरल परिभाषा है-जिसे करने से हृदय शंकित, भयग्रस्त तथा कलुषित होता है, आत्मा बंधन में पड़ता है एवं मन भय व आकुलता अनुभव करता है तथा जीवन पतित होता है, वह पाप है। उस पाप से सदा बचते रहना ‘पापभीरुता' नाम का गुण है।
धर्मशास्त्रों में जिसे पाप कहा गया है, नीतिशास्त्र में उसे ही अनैतिकता कहा गया है। असत्यभाषण धर्मशास्त्र की भाषा में पाप है और नीतिशास्त्र की भाषा में अनैतिकता।
जैन शास्त्रों की दृष्टि पाप के विषय में विशाल है। वहां सूक्ष्म हिंसा से लेकर बड़ी हिंसा, झूठ आदि पाप माने जाते हैं।
1. उन्मुक्क बालभावे। -भगवती सूत्र, 11/11 2. णवंत सुत्त पडिबोहिए। -ज्ञाता सूत्र, 1/1 3. अलं भोगे समत्थे -भगवती सूत्र, 11/11 4. उपासकदशांग सूत्र, 7/227 5. पाशयति पातयति वा पाषम्। –उत्तराध्ययनचूर्णि, 2