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________________ जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान / 229 परम्परागत रूप से कई पीढ़ियों तक चलता है। इसलिए इसमें थोड़ी सी भी असावधानी संघर्ष, क्लेश, विग्रह, पारिवारिक विघटन, समाज टूटन का कारण बन जाती है। आचार्य हेमचन्द्र ने समान कुल-शील वाले किन्तु भिन्न गोत्रीय परिवार के साथ विवाह सम्बन्ध निश्चित करने का विधान किया है। कुल पितृपक्ष से निर्धारित होता है और शील का अभिप्राय है सदाचार, घर-परिवार का आचार । गोत्र एक पूर्वज की वंश परम्परा को कहा जाता है। सात प्रकार के गोत्र स्थानांग सूत्र में भी बताये हैं। ___समान कुल-शील से अभिप्राय है-कन्या और वर दोनों पक्षों के परिवार का आचरण लगभग समान हो। दोनों परिवार में ही अहिंसा, सत्य, उदारता, दान, दया, आदि का परम्परागत आचार-व्यवहार हो। भिन्न गोत्र का समाजशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक और शरीर सम्बन्धी महत्व है। एक गोत्र से उत्पन्न हुई संतानें कम प्रतिभाशाली होती हैं। सभी समाजशास्त्री भिन्न गोत्रज परिवारों में विवाह सम्बन्ध की एकमत से सिफारिश करते हुए कहते हैं-अन्य गोत्रजा कन्या की संतान अधिक प्रतिभाशाली होती हैं, उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास भी कुछ विशिष्ट होता है। सद्गृहस्थ इन्हीं सब बातों पर विचार करके संबंध निश्चित करता है। धन आदि को प्रमुखता देकर यदि यह विपरीत कुलशील वाले परिवार से संबंध स्थापित कर लेता है तो उसका पारिवारिक जीवन क्लेशमय होने की संभावना बढ़ जायेगी। विवाह के प्रसंग में यह विचार भी आवश्यक है कि पुत्र-पुत्रियों का विवाह कब करना चाहिए, वर और कन्या की कौन-कौनसी समानताओं को दृष्टि में रखना आवश्यक है। इस विषय में भगवती सूत्र में बताया गया है कि कन्या और वर परस्पर वय की दृष्टि से, सुन्दरता की दृष्टि से, यौवन की दृष्टि से तथा धार्मिक एवं वैचारिक दृष्टि से समान हों। 1. कुलशीलसमैः सार्ध कृतोद्वाहोऽन्यगोवजैः । -योगशास्त्र, 1/47 2. साधना के सूत्र, तृतीय संस्करण, पृ. 821 3. साधना के सूत्र, तृतीय संस्करण, पृ. 82 । 4. सरिसयाणं सरिसव्वगं सरिसत्ताणं सरिसलावण्णरूवजोवणगुणोववेयाणं सरिसएहितो। -भगवती, 11/11
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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