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228 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
अकृत्वा परसंतापं अगत्वा खलनम्रताम् ।
अनुत्सृत्य सतां वर्त्म, यत्स्वल्पमपि तद्बहु॥ (दूसरे को दुःख न हो, दुष्टजनों के समक्ष झुकना न पड़े और सज्जनों द्वारा बताये गये मार्ग का उल्लंघन न हो, इस प्रकार यदि थोड़ा धन भी मिले तो उसे बहुत समझकर संतोष धारण करे।)
इस कसौटी के अनुसार विचार करने पर शोषण, राहजनी आदि सभी समाजघाती प्रवृत्तियों से प्राप्त धन अन्यायोपार्जित होता है। रिश्वत, भ्रष्टाचार आदि प्रवृत्तियां भी अन्याय हैं और इस अनैतिक मार्ग से प्राप्त धन वैभव अन्याय-अनीति मूलक ही माना जायेगा।
सम्पत्ति का अर्थ ही है सम्यग् प्रतिपत्ति। न्यायपूर्ण-नैतिक उपायों से प्राप्त धन ही सम्पत्ति है और यह मानव को सुख-शान्ति दे सकता है तथा ऐसी सम्पत्ति ही नैतिकता की ओर मानव को अग्रसर कर सकती है।
(2) शिष्टाचार-प्रशंसकता
शिष्ट अथवा श्रेष्ठ आचरण की प्रशंसा भी नैतिकता को समाज में प्रसरणशील बनाती हैं। शिष्ट का अभिप्राय है अनुशासित। अनुशासित आचार वह होता है जो स्वयं अपने, अपने परिवार और समाज के लिए कल्याणकारी हो, सभी लोगों के लिए, आदर्श तथा प्रेरक हो।
ऐसा आचार अथवा आचरण नैतिक होता है, वह स्वयं शुभ की ओर गतिशील रहता है तथा अन्य लोगों के लिए भी दिशानिर्देशक बनता है।
इस प्रकार के शिष्टाचार की प्रशंसा करने से समाज में नैतिकता का वातावरण बनता है, सभी लोग इस ओर उन्मुख तथा अग्रसर होते हैं।
धर्मबिन्दु की टीका में शिष्टाचार के 18 सूत्र दिये गये हैं। इसके वितान के अन्तर्गत मानव का सम्पूर्ण व्यवहार आ जाता है। अभिप्राय यह है कि शिष्टाचारसम्पन्न मनुष्य का सम्पूर्ण व्यवहार ही शिष्ट, सभ्य और सुसंस्कृत होता है, तथा वही प्रशंसनीय होता है। (3) विवाह-सम्बन्ध विवेक
नैतिक व्यवहार के प्रति सजग रहने वाले गृहस्थ को विवाह संबंध स्थापित करने में विवेक से काम लेना चाहिए। कारण यह है कि विवाह सम्बन्ध दो व्यक्तियों, दो परिवारों का अटूट सम्बन्ध है; जो जीवन भर तो रहता ही है,