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________________ जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान / 227 प्रतिफलित वह व्यवहार में होती है, इसका प्रकट रूप मानव के व्यावहारिक जीवन में होता है। जैन आगम' साहित्य में भी नीति संबंधी कुछ उल्लेख तथा विविध सूत्र मिल जाते हैं; किन्तु बाद में जैन आचार्यों ने इन्हें व्यवस्थित रूप दिया। उन्होंने ऐसे सूत्र बताए जिनके आचरण से मानव का व्यावहारिक जीवन सुखी हो, उसकी चित्तवृत्तियां शान्त हों और वह धर्म तथा अध्यात्म की ओर बढ़ने में समर्थ हो सके। जैन धर्म के अनुसार सम्यक्त्व प्राप्ति के अनन्तर चारित्रधर्म का प्रारम्भ अणुव्रत साधना से होता है। किन्तु अणुव्रतों की साधना से पूर्व भी योग्य पृष्ठभूमि की आवश्यकता होती है। उस मार्ग (अणुव्रतों) का अनुसरण करने की पूर्वभूमिका के रूप में आचार्य हेमचन्द्र ने 35 गुण बताये हैं और इन्हें मार्गानुसारी के गुण कहा है। तथा धर्ममार्ग का अनुसरण करने से पहले व्यक्ति में इन गुणों का विकास होना आवश्यक ताया है। यह 35 गुण व्यक्ति के नैतिक जीवन से संबंधित हैं। अतः इनका संक्षिप्त परिचय यहां उपयोगी रहेगा। (1) न्यायसंपन्न विभव यह मार्गानुसारी का पहला गुण है। उसका प्रथम कर्तव्य है कि न्याय नीतिपूर्वक आजीविका का उपार्जन करे। इस विषय पर हरिभद्र आदि सभी विचारक एकमत हैं। तथागत बुद्ध ने भी सम्यग्आजीव गृहस्थ के लिए आवश्यक बताया है। किन्तु यहां प्रश्न यह है कि न्यायनीतिपूर्वक उपार्जित धन किसे कहा जाय? इसकी क्या कसौटी है? इस विषय को एक नीतिशास्त्री ने स्पष्ट किया है1. माया मित्ताणि नासेइ (दशवैकालिक, 8/38), माणोविणयणासणो (दशवैकालिक, 8/38) कुद्धो सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज (प्रश्नव्याकरण, 2/2) भूएहि न विरुज्झेज्जा (सूत्रकृतांग) सादियं न मुसं क्या (सूत्रकृतांग, 8/19) सच्चं च हियं च मियं च गाहणं च (प्रश्नव्याकरण, 2/2) पिट्ठिमंस न खाएज्जा (दशवैकालिक, 8/47) आदि व्यावहारिक नीति संबंधी अनेक वचन आगम साहित्य में यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं। 2. योगशास्त्र, प्रथम प्रकाश, श्लोक 47-56 3. (क) न्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोक हितायते। -धर्मबिन्दुप्रकरण, 1 (ख) न्यायोपात्त धर्नयजन् गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्गभजन्। --पंडित आशाधर, सागार धर्माकृत
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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