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222 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
अथवा उनका पति जीवित हो। ऐसी किसी भी स्त्री के साथ भोग-सम्बन्ध रखना पर-स्त्रीसेवन व्यसन है। यह व्यसन धार्मिक, नैतिक, सामाजिक और स्वास्थ्य सभी दृष्टियों से हानिकारक, अनुचित, निन्दनीय और गर्हित है।
किन्तु पश्चिमी भोगवादी संस्कृति और सभ्यता में स्वच्छन्द और मुक्त यौनाचार की प्रवृत्ति चल रही है। उसका प्रभाव भारत के भी कुछ स्वछन्दतावादी, पश्चिमी सभ्यता में रंगे लोगों पर पड़ रहा है। वे मुक्त यौनाचार के पक्ष में तर्क देते हैं कि विवाह से तो पुरुष और स्त्री दोनों ही बन्धन मे पड़ जाते हैं, अनेक उत्तरदायित्वों को बोझ उन्हें जीवन भर ढोना पड़ता है, जबकि मुक्त यौनाचार में किसी प्रकार का बन्धन नहीं है, स्वेच्छा से किसी भी स्त्री के साथ इच्छा तृप्ति की जा सकती है। इस विचारधारा के अनुसार आजकल काल गर्ल, रखैल (Kept) आदि की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
किन्तु यह तर्क और प्रवृत्ति अत्यन्त घातक है। पर-स्त्री और स्वस्त्री में जमीन आसमान का अन्तर है। पर-स्त्रीसेवन में पुरुष और स्त्री का स्वार्थ ही प्रधान होता है, जबकि विवाहित स्त्री में प्रेम एवं सामाजिक दायित्व की भावना अधिक होती है, सेवा-भावना होती है, दोनों एक-दूसरे के सुख-दुःख के साथी होते हैं, स्त्री को मातृत्व का और पुरुष को पिता का गौरवपूर्ण पद प्राप्त होता है, बच्चों का उचित पालन-पोषण होता है और उन्हें धार्मिक-नैतिक ससंस्कार माता-पिता द्वारा मिलते हैं।
फिर पत्नी धर्म-सहायिका होती है, वह घर की लक्ष्मी होती है, उसको उचित सम्मान और आदर मिलता है, वह संकट एवं विपत्ति की घड़ियों में पति का साहस बढ़ाती है, उचित सलाह देती है, नीतिपूर्ण आचरण और कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर करती है, पति की प्रेरणा बनती है और जीवन भर उसका साथ देती है।
यह सब बातें परस्त्री में कहां? स्वच्छन्द यौनाचार से काम तृप्ति तो सम्भवतः मिल भी जाय किन्तु जीवन की सुख-शान्ति नहीं मिल सकती। फिर पर-स्त्रीसेवन तो कामाग्नि को और भी उद्दीप्त कर देता है, ठीक उसी तरह जैसे तट विहीन नदी। किनारों को तोड़कर बहती हुई नदी जिस प्रकार आस-पास के क्षेत्र में प्रलय का दृश्य उपस्थित कर देती है, उसी प्रकार पर-नारी भी पुरुष के जीवन मे प्रलय मचाकर उसे बरबाद कर देती है, पुरुष के जीवन में हाहाकार शेष रह जाता है।
इसीलिए बाल्मीकि ऋषि ने पर-नारी से अनुचित सम्बन्ध रखने को सबसे