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________________ 214 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन मांसाहार मांसाहार भी द्यूत के समान ही एक व्यसन है। व्यसनों के क्रम में यह दूसरा व्यसन है। मांस पंचेन्द्रिय प्राणियों के वध से उत्पन्न होता है। यह मानव का भोजन नहीं है। मानव-शरीर की रचना शाकाहार के लिए उपयुक्त है। शाकाहार ही मानव को स्फूर्ति, बल, वीर्य आदि प्रदान करता है और उसे प्रत्येक कार्य करने में सक्षम बनाए रखता है। शाकाहार से बुद्धि, मन और शरीर क्रियाशील बने रहते हैं। मन-मस्तिष्क में उत्तेजना व्याप्त नहीं होती, उसका जीवन सहज, सरल व नैतिक रहता है। जबकि मांसाहार अनैतिक है, अनैतिक इसलिए कि यह वैर परम्परा को बढ़ाने वाला है। आचार्य मनु ने मांस शब्द का अर्थ बताते हुए कहा है-मांस का अर्थ ही यह है कि जिसका मैं मांस खा रहा हूं, वह अगले जन्म में मुझे खाएगा। मां और स इस प्रकार मांस शब्द को अलग-अलग लिखने से इसका अर्थ होता है वह (स) मुझे (मा) खायेगा।' इस प्रकार मांसाहार अनेक जन्मों तक वैर परम्परा बढ़ाता है। शत्रुता अथवा वैर अनैतिक है, इससे अनैतिकता का ही प्रसार होता है। इसके अतिरिक्त यह दया, प्राणिरक्षा, अहिंसा भावना आदि सभी मानवीय गुणों और नैतिक प्रत्ययों का नाश करके मानव को अनैतिक बनाता है, उस के हृदय में कठोरता का वास हो जाता है, क्रूर बन जाता है, प्राणियों की रक्षा के स्थान पर उनका भक्षण करने लगता है। परिणामस्वरूप मानव श्रेष्ठता के आसन से गिरकर निकृष्ट बन जाता है; दुराचरण, हिंसा उसके जीवन के अंग बन जाते हैं। हृदय की क्रूरता उसे घोर अनैतिक तथा पतित बना देती है, नैतिकता का नामो-निशान भी नहीं रहता है। नीति में जिसे अनैतिकता कहा गया है, उसे ही धर्मशास्त्रों में पाप की संज्ञा दी गई है। 'पाप' का परिणाम पतन ही है, इसीलिए स्थानांग सूत्र में मांसाहार का फल नरक गमन बताया है। 1. मांस भक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम्। एतन्मांसस्य मांसत्व, प्रवदन्ति मनीषिणः । 2. चउहिं ठाणेहिं जीवा नेरइयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा महारम्भयाते, महापरिग्गहयाते, पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं। -मनुस्मृति, 5/55 -स्थानांग, स्थान 4
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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