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________________ नैतिक आरोहण का प्रथम चरण / 213 जूआ अनैतिक इसलिए है कि सर्वप्रथम यह जूआ खेलने वाले व्यक्ति की मानसिक शांति को भंग कर देता है, जुआरी का मन-मस्तिष्क सदा अशान्त, उद्विग्न और चिन्तामग्न रहता है। उसके अपने परिवारजनों, स्वजनों-सभी के साथ सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। धन की लालसा में वह नैतिकता को भूल जाता जुआरी लोकनिंद्य कार्य करने से भी नहीं चूकता। वह चोरी जैसे अनैतिक कार्य करने से भी नहीं हिचकता। उसके हृदय की कोमल भावनाएँ विनष्ट हो जाती है। माता-पिता, पत्नी-पुत्र आदि के प्रति क्या कर्तव्य हैं वे विस्मृति के गर्भ में चले जाते हैं। कर्तव्य-अकर्तव्य, शुभ-अशुभ जितने भी नैतिक प्रत्यय हैं, उनकी ओर वह ध्यान ही नहीं देता, अपने शब्दों की वह कीमत ही नहीं समझता, उसे सिर्फ एक धुन रहती है, वह है द्यूत-क्रीड़ा की। उस समय वह इतना विवेकान्ध हो जाता है कि पत्नी को भी दांव पर लगा देता है। नैतिक, सामाजिक, मानवीय, पारिवारिक सभी प्रकार से जुआरी का पतन हो जाता है। उसके शतमुखी नैतिक पतन को क्षत्र चूड़ामणि काव्य में चित्रित करते हुए कहा गया है__व्यसनों में जिनका चित्त आसक्त है, उनका कौन-सा ऐसा गुण है जिसे व्यसन नष्ट नहीं कर डालता? उनमें न विद्वत्ता रह पाती है, न मनुष्यता; न कुलीनता ही शेष रह पाती है, न सत्यवाणी ही। जूआ छूत की बीमारी के समान बड़ी तेजी से फैलता है और यहां तक कि संपूर्ण देशवासियों को भी अपनी गिरफ्त में ले लेता है, उनका नैतिक पतन कर देता है। ___जुआ खेलने की आदत व्यक्ति को आलसी, बिना श्रम किये रातोंरात लखपति बनने की बुरी भावना जगाती है। जुए का धन व्यक्ति को शराब, मांसाहार, पर-स्त्रीगमन, आदि बुरी आदतों की तरफ ढकेलता है। __इसीलिए यथार्थ दृष्टि प्राप्त होने के बाद नैतिकता की ओर कदम बढ़ाता हुआ मानव सर्वप्रथम द्यूत को तिलांजलि देकर अपने जीवन को निर्दोष बनाता है। 1. व्यसनासक्तचित्तानां, गुण को वा न नश्यति। न वैदुष्यं न मानुष्यं, नाभिजात्यं न सत्यवाक् ॥
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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