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208 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
संसर्ग अथवा संगति से गुण भी दोष बन जाते हैं। फल यह होता है कि यथार्थदृष्टि वाले मानवों की उचित दृष्टि भी संगति के दोष से प्रभावित होकर मलिन हो जाती है।
उपसंहार
जैन विचारणा में सम्यक्त्व को चिन्तामणि रत्न से भी अधिक मूल्यवान कहा गया है। यह आत्मा की ज्योति है, आत्म-ज्योति को प्रगट करने वाला है, आत्म शक्ति को अभिव्यक्ति प्रदान करता है, समता की मुद्रा है, भव-परम्परा का उच्छेद करता है। इसका सबसे बड़ा गुण है। मानसिक तथा भावनात्मक अन्धकार को विनष्ट करके सदज्ञान का आलोक जगाना।
अन्धकार आत्मा को, आत्मिक शक्तियों को, आत्मिक सद्गुणों को तिरोहित करता है, बुद्धि को मलिन करता है, हृदय को क्रूर और कठोर बनाता है और इन सबका व्यावहारिक परिणाम होता है, दुराचरण तथा अनैतिक आचरण। मानव मन से, वचन से, शारीरिक चेष्टाओं से अनैतिक बन जाता है।
नीति की अपेक्षा से सम्यक्त्व इसी अन्धकार को नष्ट करने के लिए सहस्ररश्मि दिनकर के समान तेजपुंज है। यह यथार्थ दृष्टिकोण की आत्म-ज्योति को प्रगट करता है, उद्दीप्त करता है और संपूर्ण जीवन-व्यवहार में चमक भर देता है। __आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुक्ति का अधिकार पत्र है तो नैतिक दृष्टि से नीतिपूर्ण जीवन का आधार भी है। यह आध्यात्मिक नैतिक जीवन का प्राण है इसका कारण यह है कि सम्यक्त्व जीवन दृष्टि है, जीवन के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण है, विचारणा की एक निश्चित गति है, जिससे आचार से प्रगति होती
है।
वैचारिक और आचार सम्बन्धी गति-प्रगति का आधार है-अनासक्ति और समत्व भाव हैं-राग-द्वेष आदि की अल्पता, अहं-मम तथा मेरे-तेरे की भावना का विसर्जन, कषायों का उपशमन, चित्त की वृत्तियों का शोधन, लालसाओं का परिसीमन।
यह सब सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन के प्रभाव से होता है, वही एक ऐसी जीवन दृष्टि देता है जो न्यायपूर्ण, उचित होती है, कर्तव्याकर्तव्य, शुभाशुभ आदि का विवेक करने में सक्षम बनाती है तथा शुभतम आचरण की ओर मानव को प्रेरित करती है।