________________
सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव / 207
वस्त्र को सिर्फ मलिन ही करता है, उसे नष्ट नहीं करता; उसी प्रकार अतिचारों से भी सम्यक्त्व में सिर्फ मलिनता ही आती है, वह नष्ट नहीं होता। फिर भी ये अतिचार सिर्फ जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं है।'
इनमें से शंका, कांक्षा और विचिकित्सा-यह तीन अतिचार तो उपरिवर्णित सम्यक्त्व के आठ अंगों में से प्रथम तीन अंग निश्शंकिता, निष्कांक्षता और निर्विचिकित्सा के विरोधी हैं। जो स्वरूप अंगों का बताया गया है, उससे विपरीत इन दूषणों का स्वरूप होता है।
इनके अतिरिक्त मिथ्यादृष्टिप्रशंसा और मिथ्यादृष्टिसंस्तव मूढ़ता के परिणाम हैं। प्रशंसा का अर्थ मानसिक श्लाघा तथा संस्तव का अर्थ वचन द्वारा उनके विद्यमान अथवा अविद्यमान गुणों का उत्कीर्तन अथवा स्तुति। संस्तव का एक अर्थ परिचय भी है। ___इन दोनों अतिचारों का अभिप्राय है-परपाखंडियों की न प्रशंसा करनी योग्य है और न उनका अति परिचय ही करना चाहिए।
शंका, कांक्षा और विचिकित्सा का अनैतिकत्व तो सम्यक्त्व के प्रथम तीन अंगों के सन्दर्भ में बताया जा चुका है। मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा, तथा अतिपरिचय भी अनैतिक ही है। ___अयथार्थ दृष्टिकोण ही मिथ्यादृष्टि है। जिन व्यक्तियों का दृष्टिकोण जीवन, समाज तथा कर्तव्याकर्तव्य के बारे में यथार्थ नहीं होता, जो समाज एवं देश-काल की परिस्थितियों का यथार्थ मूल्याकंन नहीं कर पाते, अपने स्वार्थ को ही प्रधान मानते हैं, ऐसे व्यक्ति चाहे धर्म के, समाज के, राज्य कि कितने भी उच्च पदों पर आसीन क्यों न हों, उनकी प्रशंसा करने का परिणाम घातक ही होता है, आतंक, संघर्ष, विप्लव, हिंसा जैसी घोर अनैतिकताओं को ही जन्म देता है। यह प्रत्यक्ष सिद्ध है।
इसी प्रकार अयथार्थ दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों का अति-परिचय भी हानिकारक होता है। नीति का ही एक वाक्य है-संसर्गजाः दोष गुणा भवन्ति
1. जाणियव्वा न समायरियव्वा।
-प्रतिक्रमण सूत्र 2. मिथ्यादृष्टीनां मनसा ज्ञानचारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा, विद्यमानामविद्यमानां मिथ्यादृष्टि
गुणानां वचनेन प्रकटनं संस्तव उच्चते। -तत्वार्थसूत्र श्रुत, सागरीया वृत्ति, 7/23 3. तैर्मिथ्यादृष्टिभिरेकत्र संवासात्परस्परानपानादि जनितः परिचयः संस्तवः।
-योगशास्त्र, 1/17 बृत्ति, पत्र 67