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सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव / 205
व्यवहार अथवा पर की अपेक्षा से अन्य व्यक्तियों को, जो किसी कारणवश धर्म से विचलित हो रहे हैं, पुनः धर्ममार्ग में स्थिर करना, उन्हें उचित और जैसी अपेक्षा हो, सहयोग देना ।
साधु को तो सम्यक्त्व श्रावक वचनों द्वारा सहयोग दे सकता है अथवा संयम के लिए उपयोगी वस्तुओं का अभाव हो तो उनकी पूर्ति कर सकता है ।
किन्तु गृहस्थ श्रावक की अनेक समस्याएं हो सकती हैं; जैसे- निर्धनता, असहायता, रोगग्रस्तता, अन्यतीर्थिकों द्वारा फुसलाया जाना, प्रलोभन आदि । यह भी हो सकता है कि उनके वैभव और ऐश्वर्यमय जीवन से वह व्यक्ति स्वयं ही आकर्षित होकर स्वधर्म से च्युत हो रहा हो ।
इस दशा में सम्यक्त्वी श्रावक का कर्तव्य है कि धन से, सेवा से, शब्दों से अथवा जिस किसी प्रकार से संभव हो, उसकी सहायता तथा सहयोग करके दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म में पुनः स्थिर करे ।
नीति के अनुसार स्थिरीकरण के दोनों ही रूपों का महत्व है । व्यक्ति का कर्तव्य है कि आवेगों-संवेगों से अपनी आत्मा और मानसिक वृत्तियों को उद्वेलित न होने दे, मस्तिष्कीय संतुलन बनाये रखे । यदि मस्तिष्क का संतुलन न रहा तो वह कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय न कर सकेगा और परिणामस्वरूप अनैतिक आचरण भी कर सकता है ।
व्यक्ति अकेला नहीं है, उसका संपूर्ण जीवन व्यवहार समाज सापेक्ष है । यदि समाज के अन्य व्यक्ति अनैतिक आचरणों में प्रवृत्त हो जायेंगे तो वह स्वंय भी नैतिक रहने में सक्षम न हो सकेगा। अतः सहयोग देकर अन्य व्यक्तियों को नैतिक बनाये रखना उसका नैतिक कर्तव्य है । इसी नैतिक कर्तव्य की ओर 'स्थिरीकरण' द्वारा संकेत किया गया है ।
( 7 ) वात्सल्य - वात्सल्य 'वत्स' शब्द से बना है । वत्स का अर्थ होता है पुत्र- प्रेम | माता-पिता, जिस प्रकार प्रतिफल की इच्छा किये बिना अपने पुत्र विशुद्ध प्रेम करते हैं, संकटों - रोगों से उसकी रक्षा करते हैं, उसके हित के लिए सचेष्ट रहते हैं, उसके जीवन-निर्माण के लिए अपने सुखों का त्याग करते हैं, धन का व्यय करते हैं, उसी प्रकार सम्यक्त्वी श्रावक भी अपने साधर्मी बन्धुओं के हित आदि में सचेष्ट रहे ।
सम्यक्त्वी श्रावक का वात्सल्य भाव बहुत विस्तृत होता है, वह संसार के सम्पूर्ण प्राणियों की हित-कामना करता है, सभी को सुखी देखना चाहता है । उसका