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________________ 202 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन निर्भयता-दोनों का ही निशंकित अंग में सम्न्वय कर लिया है। नीति की दृष्टि से निर्भयता और निःसंशयशीलता-दोनों ही नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। संशय तो सर्व कार्यविराधक है ही। गीता के शब्दों में संशयात्मा विनश्यति-संशयशील व्यक्ति विनष्ट हो जाता है, दूसरे शब्दों में उसके सभी सद्गुण समाप्त हो जाते हैं। संशयशील व्यक्ति चाहे जितना ऊंचा चिन्तक/ विचारक हो, अन्त में उसका पतन होता है। इसी प्रकार नैतिक आचरण के लिए निर्भयता भी आवश्यक है। अनेक व्यक्ति जीवन के भय से अनैतिक आचरण करते हैं तो अनैतिकता की प्रवृत्ति आज सामान्य बात हो गई है। फिर अत्राणभय से भयभीत मानव धन संग्रह में त्राण मानता है और अनैतिक साधनों से तथा शोषण आदि अनैतिक आचरण से धन एकत्र करता है। अतः नैतिक आचरण के लिए व्यक्ति को शंका रहित तथा साथ ही निर्भय भी होना आवश्यक है। (2) निष्कांक्षता-अपनी आत्मा के शुद्ध परमात्मरूप आनन्दस्वरूप में लीन रहना तथा परभाव की आकांक्षा न करना, निष्कांक्षता है। जप-तप आदि धर्मक्रियाओं से लौकिक सखों की प्राप्ति की इच्छा को भी काँक्षा' कहा गया है, ऐसी कांक्षा न करना, निष्कांक्षा है। अथवा अन्य एकान्तिक मिथ्यावादियों के विलासमय जीवन को देखकर भी उनकी ओर आकर्षित न होना, उस मत को ग्रहण करने की मन से भी इच्छा न करना निष्कांक्षता है। कांक्षा, जिस व्यक्ति की प्रबल होती है, उसे नैतिक जीवन जीने में कठिनाई आती है, कांक्षाएँ उसे अनैतिक आचरण के लिए प्रेरित करती हैं? और निष्कांक्ष व्यक्ति सात्विक/नैतिक जीवन सरलता से जी लेता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है से हु चक्खु मणुस्साणं जे कंखाए अन्तए। -जिसने कांक्षाओं का अन्त कर दिया, वह मनुष्यों के लिए नेत्र के समान पथ प्रदर्शक है। निष्कांक्षता गुण को धारण करने वाला स्वयं तो नैतिक प्रगति करता ही है, अन्य लोगों के लिए भी वह प्रेरणा प्रदीप बन जाता है। 1. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 12 2. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, श्लोक 23
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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