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________________ सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव / 199 वैसी ही कीट-पतंगों, वृक्षों आदि में भी है । अतः वह किसी भी जीव को तनिक भी दुःखी करने की भावना नहीं रखना । 'शम' का वाच्यार्थ शमन है । यहां इसका अर्थ क्रोध, मान, आदि कषायों तथा लोभ संग्रह वृत्ति रूप वासनाओं की उपशांति है । 'श्रम' का अभिप्राय मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने का श्रम अथवा प्रयास करना, इस ओर उद्यम करना । 1 नीतिशास्त्र की दृष्टि से नैतिक व्यक्ति में यह तीनों गुण आवश्यक हैं यदि वह सभी प्राणियों को अपने समान न मानेगा तो अन्य लोगों के प्रति अनैतिकता का क्रूर आचरण करने में भी न चूकेगा। शोषण, हिंसा, आदि अनैतिक प्रवृत्तियों का मूल कारण समानता की भावना में कमी ही है । साथ ही जो व्यक्ति हानि-लाभ, सुख-दुःख अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में मानसिक संतुलन न बनाये रख सकेगा, वह असंतुलित दशा में अनैतिकतापूर्ण आचरण करने लगे, इस बात की भी बहुत संभावना है। कषायों और वासनाओं के आवेग तो अनैतिक आचरण के मूल प्रेरक ही हैं। जो व्यक्ति अपनी आत्मोन्नति के लिए श्रम करेगा, वह अनैतिक आचरण कर ही नहीं सकता, क्योंकि अनैतिक आचरण से आत्मा पतित होती है। (2) संवेग-सामान्यतः संवेग शब्द का अर्थ अनुभूति होता है । इस रूप में इसका अर्थ होगा - आत्मानुभूति, स्वानुभूति । जैन दर्शन में इसका अर्थ मोक्ष की तीव्र आकांक्षा है । इस तीव्र इच्छा से व्यक्ति अयथार्थता, कषाय आदि को क्षय करके मुक्ति की ओर बढ़ता चला जाता है। नीति के दृष्टिकोण से संवेग को सत्य की अभीप्सा के रूप में लिया जा सकता है। सत्य नीति का प्रमुख प्रत्यय और विषय है । सत्य के अभाव से नैतिकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती । 1 (3) निर्वेद - शब्द शास्त्र की दृष्टि से निर्वेद का अर्थ-वासना-हीनता है यहां वासना का व्यापक अर्थ अपेक्षित है । वासना अर्थात तीव्र इच्छा संसार की, सांसारिक विषय भोगों की । और निर्वेद उसी सांसारिक वासना को अल्प, अल्पतम करने की वृत्ति है । निर्वेद से जीव काम-भोगों से विरक्त, उदासीन होता है, आरंभ - परिग्रह का 1. उत्तराध्ययन सूत्र, 29 / 2
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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