________________
198 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
रोचक सम्यक्त्व वाले मानव यथार्थ को जानते हुए भी शुभ का आचरण नहीं कर पाते, उनकी अपनी मानसिक दुर्बलताएं इतनी प्रबल होती हैं जो नैतिकतापूर्ण व्यवहार करने ही नहीं देती। ऐसे मानवों का आचरण उनके निजी स्वार्थ के कारण अनैतिक भी हो जाता है । अतः इन व्यक्तियों को अनैतिक कहा जा सकता है, यह अशुभ का आचरण करते हैं ।
दीपक सम्यक्त्व ऐसे व्यक्तियों का उदाहरण पेश करता है जो दूसरों को तो उपदेश देते हैं, नीति और सदाचार की प्रेरणा देते हैं, लेकिन स्वयं सदाचरण का पालन नहीं कर सकते ।
सन्त तुलसीदास के शब्दों में- पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।
सम्यक्त्व के पांच लक्षण
किसी व्यक्ति को सम्यक्त्व है या नहीं, इसकी पहचान के लिए कुछ बाह्य लक्षण बताये गये हैं। नीतिशास्त्र की दृष्टि से, यह भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति की आन्तरिक नैतिकता उसके बाह्य व्यवहार एवं आचरण में प्रगट होती हैं । उसी को दृष्टि में रखते हुए अन्य व्यक्ति उसके नैतिक होने अथवा न होने का निर्णय करते हैं ।
आध्यात्मिक विज्ञान का अटल सिद्धान्त है कि आन्तरिक भावनाओं का बाह्य जीवन में प्रगटीकरण होता ही है । मनोविज्ञान भी इस सिद्धान्त से सहमत है। उसकी मान्यता है कि हृदयगत गुप्त मनोभाव व्यक्ति के जीवन व्यवहार में किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त हो जाते हैं ।
जैन आगमों में सम्यक्त्व के पांच बाह्य लक्षण बताये हैं ।
(1) सम- प्राकृत के 'सम' शब्द के संस्कृत भाषाविदों ने तीन रूप माने हैं- सम, शम और श्रम । तथ्यतः प्राकृत का 'सम' शब्द इन तीनों शब्दों के अर्थ को अपने अन्दर समाए हुए हैं।
'सम' समानता अर्थ का द्योतक है। इसका अभिप्राय है - प्राणिमात्र को अपने समान समझना । जैन शास्त्रों में कहा गया है- अप्प समेमनिज्ज छप्पिकाए (सभी जीवों को अपने समान समझना ) इसी भावना को उपनिषदकारों ने ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु' शब्दों में व्यक्त किया है।
सम्यक्त्वी मानव, चूँकि जीव आदि तत्वों का स्वरूप भलीभाँति हृदयंगम कर लेता है, अतः उसकी निश्चित धारणा बन जाती है कि जैसी मेरी आत्मा है,