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196 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
( 10 ) धर्म रुचि - वीतराग भगवान द्वारा कहे हुए अस्तिकाय - छह द्रव्य के गुणधर्म तथा श्रुत और चारित्र धर्म में श्रद्धा करना धर्मरुचि है ।
सम्यक्त्व का पंचविध वर्गीकरण
सम्यक्त्व का पांच प्रकार से वर्गीकरण कर्म प्रकृतियों के आधार पर किया गया है । इनमें कर्म प्रकृतियों के क्षय, उपशम, क्षयोपशम आदि की अपेक्षा से सम्यक्त्व का विचार प्रस्तुत हुआ है।
(1) क्षायिक सम्यक्त्व - इस सम्यक्तव की उपलब्धि उपर्युक्त वर्णित 7 कर्म प्रकृतियों (1-4) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ ( 5 ) मिथ्यात्व, ( 6 ) सम्यक् मिथ्यात्व तथा ( 7 ) सम्यक्त्वमोह के संपूर्ण रूप से क्षय- नष्ट हो जाने पर होती है।
ऐसा सम्यग्दर्शन चिरस्थायी होता है, एक बार उत्पन्न हो जाने पर फिर कभी नष्ट नहीं होता है और जीव अधिक से अधिक 3 अथवा 4 जन्म धारण करके मुक्त हो जाता है ।
(2) औपशमिक सम्यक्त्व - इस सम्यक्त्व की उपलब्धि उपर्युक्त 7 कर्म प्रकृतियों के उपशम से होती है ।
उपशम का अर्थ है, नीचे दब जाना; जैसे मिट्टी मिले पानी से भरे गिलास को यदि किसी स्थान पर स्थिर रखा जाय तो मिट्टी गिलास की तली में बैठ जाती है, और पानी स्वच्छ नजर आता है, और फिर जरा सा धक्का लगते ही मिट्टी उभर आती है तथा संपूर्ण पानी पुनः गंदला हो जाता है, वही स्थिति इस सम्यक्त्व की है; जब तक सातों कर्म प्रकृतियां उपशांत रहती हैं, तब तक तो सम्यक्त्व गुण प्रगट रहता है और जैसे ही कर्म प्रकृतियां उभरती हैं, सम्यक्त्व गुण भी मलिन होकर विलीन हो जाता है ।
इस सम्यक्त्व का अधिक से अधिक समय (कालमान) 48 मिनट है । उसके उपरान्त या तो जीव पतित होकर मिथ्यात्वी ( अयथार्थ श्रद्धा वाला) हो जाता है, अथवा मिश्रित श्रद्धा वाला (कुछ यथार्थ और कुछ अयथार्थ श्रद्धा) या क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी बन जाता है।
(3) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - जीव जिस समय उपर्युक्त 7 कर्म प्रकृतियों में से चार, पांच, छह का क्षय करे और सम्यक्त्वमोह का उपशम करता है, उस समय जो, सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। इस सम्यक्त्व का अधिक से अधिक समय छियासठ ( 66 ) सागर है ।