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________________ 194 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (1) निसर्गज सम्यग्दर्शन-निसर्जन का अर्थ स्वभाव, प्रकृति अथवा परसहायनिरपेक्षता है। यह सम्यग्दर्शन पर की सहायता के बिना स्वयमेव ही आत्मा से स्फूर्त होता है। इसमें गुरु आदि के उपदेश, धर्मश्रवण, शास्त्र स्वाध्याय आदि किसी की भी अपेक्षा नहीं होती, व्यक्ति सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का प्रयत्न नहीं करता। जिस प्रकार नदी प्रवाह में लुढ़कता हुआ पत्थर स्वयमेव ही गोल और चिकना हो जाता है, उसी प्रकार संसार में भटकते हुए जीव को परिणामों की सहज विशुद्धि के कारण अनायास ही इसकी उपलब्धि हो जाती है। (II) अधिगमज सम्यक्त्व-यह गुरु आदि के उपदेश से जीव को उपलब्ध होता है, धर्मश्रवण, शास्त्र स्वाध्याय आदि भी निमित्त बन सकते हैं। (ख) द्रव्य और भाव सम्यक्त्व (I) द्रव्यसम्यक्त्व-विशुद्ध रूप में परिणत किये मिथ्यात्व के पुद्गल, द्रव्यसम्यक्त्व कहलाते हैं। (II) भावसम्यक्तव-उन पुद्गलों के निमित्त से होने वाली तत्वश्रद्धा, भावसम्यक्त्व कहलाती है। (ग) निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन (I) निश्चयसम्यग्दर्शन-आत्मा की शुद्ध रुचि निश्चयसम्यग्दर्शन है। इसमें जीव और अजीव के भेदविज्ञान की प्रमुखता है। सम्यग्दर्शन का धारक जीव स्व-स्वरूप में रमण को मोक्ष का हेतु मानता है और पर-पदार्थों में आसिक्त को बंधन। अतः उसके भीतर राग-द्वेष मोह की वृत्तियां अल्प हो जाती हैं, देह में रहते हुए भी देहाध्यास छूट जाता है। (II) व्यवहारसम्यग्दर्शन-नौ तत्व तथा देव-गुरु-धर्म का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन-व्यवहारसम्यग्दर्शन है। 1. प्रवचनसारोद्धार, द्वार 149, गाथा 942 टीका। 2. शुद्ध जीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य। ___-नियमसार गाथा, 3 की पद्यप्रभ टीका और भी देखेंआत्ममात्ररुचिः सम्यग्दर्शनमोक्षहेतुकम् । तविरुद्धमतिर्मिथ्यादर्शनं भवहेतुकम् ॥ एक मात्र आत्मभाव में रुचि ही सम्यग्दर्शन है और वही मोक्ष का हेतु है। इसके विपरीत भाव में-अनात्मभाव में रुचि मिथ्यादर्शन है और वह संसार परिभ्रमण का हेतु है। -(अन्तर्नाद) अमर भारती, अगस्त 72, पृ. 1
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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