________________
सम्यग्दर्शन का स्वरूप और नैतिक जीवन पर उसका प्रभाव
सम्यक्त्व की उत्पत्ति
जैन-दर्शन में सम्यक्त्व के दो रूप माने गये हैं-स्व-अपेक्षा और पर-अपेक्षा। 'स्व' का अभिप्राय आत्मा के अपने परिणाम और पर का अर्थ है-कर्म, कर्म की प्रकृतियां।
सम्यक्त्व का अवरोध करने वाली 7 कर्म प्रकृतियां हैं-(1-4) अनन्तानुबन्धी (अत्यन्त प्रगाढ़) क्रोध, मान, माया, लोभ की प्रकृति और (5) मिथ्यात्वमोह, (6) सम्यग्मिथ्यात्व-मिश्रमोह और (7) सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व-सम्यक्त्वमोह। इन सात प्रकृतियों के (1) सर्वथा विनष्ट हो जाने (क्षय) (2) अथवा कुछ विनष्ट एवं कुछ उपशमित होने और (3) उपशमित हो जाने पर जीव को सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। दूसरे शब्दों में. तथ्य स्वरूप भावों के सद्भाव श्रद्धा होती है। सम्यक्त्व का द्विविध वर्गीकरण
सम्यक्त्व का द्विविध वर्गीकरण तीन शैलियों से किया गया है(क) निसर्गज और अधिगमज सम्यक्त्व।' 1. (क) निसग्गसम्मइंसणे चेव अभिगमसम्मइंसणे चेव।
स्थानांग, सूत्र 2, उद्देशक 1 सूत्र 70 (ख) तन्निसर्गादधिगमाद्वा
-तत्त्वार्थ, सूत्र 1/3 (ग) प्रज्ञापना, प्रथम पद, सूत्र 37