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________________ जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन / 191 शत्रु' कहा गया है, इसीलिए प्रमाद को हेय और अप्रमाद की उपादेय बताया गया है। अप्रमाद नैतिक प्रगति के लिए अनिवार्य है। कषाय का अभिप्राय-क्रोध, अहंकार, कपट और लोभ। काम (वासना-कामना) को भी कषाय के अन्तर्गत माना गया है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सब नैतिक आचरण, सदाचार और शील के विघातक हैं। इसके विपरीत अकषाय संवर नैतिक हैं, सदाचारमय हैं, क्योंकि यह कषाय को रोकता है। इसी प्रकार मन, वचन, काय के शुभ योग श्लाघनीय हैं-सामाजिक, व्यक्तिगत व राष्ट्रीय सभी दृष्टियों से। इस कारण ही नैतिक शुभ होने से यह उपादेय हैं, ग्रहण करने योग्य हैं। निर्जरा का अभिप्राय है जिन कर्मों ने आत्मिक सद्गुणों को प्रतिबन्धित कर रखा था, अथवा जिन आवरणों के कारण आत्मिक शक्तियां प्रगट हो पा रही थीं, उन्हें दूर कर देना, हटा देना, पृथक कर देना यही निर्जरा का लक्षण __आत्मिक शक्तियों का-सद्गुणों का प्रगटीकरण और संपूर्ण विकास ही नीति का चरम लक्ष्य है; नैतिक आचरण किया ही इसलिए जाता है कि मानव के सद्गुणों का विकास हो, वृद्धि हो, प्रसार हो। इस दृष्टि से निर्जरा नैतिक प्रत्यय है, नीति का लक्ष्य है और एक शब्द में वह सब कुछ (summum bonum) है जो नीति पाना चाहती है, जो नीति का आधार है और उद्देश्य भी है। पुण्य तत्व के 9 प्रकार बताये गये हैं(1) अन्न पुण्य-भूखे को शुभ भावना पूर्वक भोजन देकर संतुष्ट करना। (2) पान पुण्य-प्यासे की सद्भाव के साथ तृषा शांत करना। (3) लयन पुण्य-स्थान प्रदान करना। (4) शयन पुण्य-विश्राम हेतु शयन सामग्री देना। (5) वस्त्र पुण्य-जरूरतमन्द को वस्त्र दान देना। (6) मन पुण्य-मन से शुभ संकल्प करना, मन से दूसरों का हित चाहना। 1. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु। नास्त्युद्यम समो बन्धुर्य कृत्वा नावसीदति ॥ -भतृहरिः नीतिशतक, श्लोक 87 2. स्थानांग सूत्र, स्थान 9
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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