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________________ 190 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन पाप के अठारह स्थान बताये गये हैं (1) हिंसा ( 2 ) मिथ्या भाषण (3) स्तेय (4) अब्रह्म ( 5 ) परिग्रह ( 6 ) क्रोध ( 7 ) मान ( 8 ) माया ( 9 ) लोभ (10) राग - सांसारिक पदार्थों पर राग । ' ( 11 ) द्वेष ( पदार्थों के प्रति ईर्ष्या, घृणा आदि)2 (12) कलह-क्लेश ( 13 ) अभ्याख्यान ( मिथ्यादोषारोपण) (14) पैशुन्य ( चुगली ) ( 15 ) परपरिवाद ( दूसरों की निन्दा ) ( 16 ) रति ( भोगों में प्रीति) और अरति (संयम-आत्मानुशासन -सदाचार से उद्वेग ) ( 17 ) मायामृषा ( कपट सहित झूठ बोलना, जो सुनने वाले को सत्य प्रतीत हो किन्तु वास्तव में हो असत्य) (18) मिथ्यादर्शन (मिथ्या, अथवा गलत धारणा ) । स्पष्ट ही यह सब अनैतिक प्रत्यय हैं, दुराचरण हैं, सदाचार और नैतिकता को हानि पहुंचाने वाले हैं। इसीलिए आस्रव, बंध और पाप इन तत्वों को त्यागने योग्य कहा गया है। संवर, निर्जरा और पुण्य उपादेय क्यों ? संवर तत्व आस्रव का विरोधी है। पांच प्रकार के आस्रवों के विपरीत 5 प्रकार के संवर हैं - ( 1 ) सम्यक्त्व संवर ( 2 ) विरति संवर (3) अप्रमाद संवर (4) अकषाय संवर और ( 5 ) शुभयोग संवर । मिथ्यात्व अनीतिपूर्ण आचरण का मूल कारण है इसलिए यह तो स्पष्ट अनैतिक है ही। इसके विपरीत यथार्थ दृष्टिकोण शुभ है, नैतिक हैं, सांसारिक और इन्द्रियों भोगों से विरक्ति न होना अविरति है तथा विरक्त होना विरति है । इन्द्रिय और सांसारिक भोगों की उद्दाम लालसा अनैतिकता की जननी है, यह सर्वविदित और स्वीकृत तथ्य है । विरति संवर इस लालसा को सीमित करता है, रोकता है, अतः यह नैतिक है, शुभ है । इसी प्रकार प्रमाद - आलस्य, असावधानी, जागरूकता की कमी से अनेक प्रकार की हानियाँ होती हैं, फिर प्रमाद तो मानव के शरीर में रहा हुआ, परम 1. राग के तीन उत्तरभेद हैं- (क) कामराग - अपनी कामना / इच्छा पूरी होने पर होने वाला राग - (ख) स्नेहराग-स्नेहीजनों से अनुकूल प्रतिक्रिया प्राप्त होने पर होने वाला राग, (ग) दृष्टिराग- अपनी मान्यताओं-विश्वासों के प्रति होने वाला राग । 2. द्वेष के तीन उत्तरभेद हैं- (क) कामद्वेष - अपनी कामना पूरी न होने पर होने वाला द्वेष, (ख) स्नेहद्वेष - स्नेहीजनों द्वारा प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त करने पर होने वाला द्वेष (ग) दृष्टिद्वेष - अपनी मान्यता के प्रतिकूल मान्यता वालों तथा अपनी मान्यता का विरोध करने वालों पर होने वाला द्वेष ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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