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जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन / 189
हो जाना है। मोक्ष तत्व का अभिप्राय सर्वथा कर्म मुक्त अवस्था है, इस दशा में जीव के साथ किसी भी प्रकार का कर्म नहीं रहता, यह आत्मा की शुद्ध विशुद्ध दशा है।
मोक्ष स्वरूप की प्राप्ति ही जैन नीति का लक्ष्य है।
नव तत्वों में हेय (त्यागने योग्य), ज्ञेय (जानने योग्य) और उपादेय (आदरने योग्य)-यह तीन प्रकार की योजना की गई है। जीव और अजीव-यह दो तत्व जानने योग्य है; आस्रव, बंध, पाप यह तीन तत्व
छोड़ने योग्य हैं, संवर, निर्जरा, पुण्य और मोक्ष। ये चार तत्व अदारने योग्य उपादेय हैं। मुक्ति प्राप्ति की दृष्टि से पुण्य तत्व भी एक सीमा तक आदर के योग्य है।
आस्रव, बंध और पाप हेय क्यों?
आस्रव, बंध और पाप को हेय बताया गया है, इसका कारण इनका मुक्ति-प्राप्ति में बाधकत्व तो है ही; सांसारिक, सामाजिक, पारिवारिक, व्यक्तिगत जीवन में भी यह संघर्ष, दुख आदि की सृष्टि करते हैं, इस कारण यह नैतिकता में भी बाधक हैं, व्यक्ति को अनैतिक बनाते हैं।
आस्रव के पांच भेद हैं-(1) मिथ्यात्व आस्रव, (2) अविरति आस्रव, (3) प्रमाद आस्रव, (4) कषाय आस्रव और (5) अशुभ योग आस्रव।
मिथ्यात्व तो किसी भी वस्तु के प्रति अयथार्थ दृष्टिकोण ही है। इस बुद्धि विपर्यय से अनेक विप्लव खड़े होते हैं। (मिथ्यात्व का विशद विवेचन इसी अध्याय में पहले किया जा चुका है।)
बंध का जैन कर्म सिद्धान्त के प्रमुख कर्मग्रन्थों आदि में प्रकृति बन्ध आदि के रूप में विस्तृत विवेचन किया गया है; किन्तु नीति की अपेक्षा बंध का अभिप्राय आत्मा के सद्गुणों के प्रगट होने में रुकावट अथवा प्रतिबन्ध अर्थ अधिक उपयुक्त है। जैसे किसी को दुःख देने से असातावेदनीय का बन्ध होता है तो इसके फलस्वरूप आत्मा को भी दुःख भोगना पड़ता है।
किसी को दुःख देना, ज्ञान प्राप्ति में विघ्न डालना, प्राणों का हनन करना यह सब अशुभ बन्ध के कारण तो होते ही हैं साथ ही नैतिक दृष्टि से भी यह अशुभ तथा हानिकारक हैं।