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जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन / 187
जीव के विषय में भगवती सूत्र में कहा गया है__ जीवो अणाइ अनिधणो अविनासी अक्खओ ध्रुवो निच्चं अर्थात्-जीव अनादि है, अविनाशी है, अक्षय है, ध्रुव है और नित्य है। व्यावहारिक दृष्टि से जीव के यह लक्षण हैं
(1) जीव परिणामी है (2) कर्ता है (3) अपने किये कर्मों के फल को भोगता है और (4) सन्देह परिमाण है।
नीतिशास्त्र में जीव के कर्तापन और भोक्तापन का अधिक महत्व है। कर्तव्य शक्ति तथा प्रवृत्ति होने से जीव अपने किये हुए कर्मों तथा आचरणों के लिए उत्तरदायी होता है, उसे नैतिक अथवा अनैतिक की संज्ञा दी जाती है तथा भोक्ता होने से उसे अनैतिक आचरणों का दुष्फल और नैतिक कार्यों का शुभफल मिलता है। दण्डनीति, सामाजिक भर्त्सना आदि की व्यवस्था अशभ अनैतिक कार्यों एवं प्रवृत्तियों को रोकने के लिए ही की गयी है तथा प्रशंसा, पुरस्कार, सत्कार आदि नैतिक शुभ एवं नैतिक प्रगति को गति प्रदान करते हैं। अजीव तत्व
अजीव तत्व को भली भांति समझने के लिए जीव और अजीव में जो भेद हैं, उन्हें जानना उपयोगी होगा। जीव के लक्षण उपरोक्त पंक्तियों में दिये जा चुके हैं। यहां हम जीव और अजीव की पारस्परिक विभिन्नताओं की चर्चा
करेंगे।
जीव और अजीव की विभाजक रेखा-इस संसार में जीव कहीं भी शुद्ध रूप में नहीं पाया जाता, सर्वत्र वह पुद्गल से संबन्धित ही दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि उसके साथ शरीर लगा हुआ है, जो पौद्गलिक है-अजीव है; इसलिए भी विभाजन को समझना अति आवश्यक है अन्यथा जीव तत्व और अजीव तत्व के स्वरूप के विषय में भ्रान्ति होने की संभावना है। जीव
अजीव 1 प्रजनन शक्ति (संतति उत्पादन)
नहीं 2 वृद्धि (स्वयमेव) (Growth) 3 आहार-ग्रहण 4 विसर्जन (नीहार) 5 जागरण, नींद, परिश्रम, विश्राम 6 आत्मरक्षा हेतु प्रयास 7 भय त्रास
नहीं
耐耐耐耐耐