________________
186 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
फिर नीतिशास्त्र की दृष्टि से तथा आचार की अपेक्षा भी पुण्य-पाप का महत्व अधिक है तथा इनका विशिष्ट स्थान है; क्योंकि पुण्य नीतिशास्त्रीय दृष्टिकोण से शुभ-नैतिक शुभ है और पाप है नैतिक अशुभ। अतः नौ तत्वों की गणना ही अधिक उचित है। (1) जीव तत्व
जीव का लक्षण-जीव शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार जीव का लक्षण बताया गया है-जो जीवित रहता है, प्राण धारण करता है, वह जीव है।
जैन धर्म में जीव का लक्षण उपयोग बताया गया है, जिसमें चेतना तथा प्राण-धारण भी गर्भित है।
चेतना, यह जीव का मुख्य लक्षण है, अन्य किसी भी तत्व में यह नहीं पाई जाती। चेतना का अभिप्राय जीव की जानने, देखने और अनुभव करने की शक्ति है। इस शक्ति के कारण ही जीव सुख-दुख का वेदन करता है तथा आनन्द का अनुभव करता है।
जीवित रहने के लिए प्राण धारण करना आवश्यक है। जैन धर्म में प्राण अन्तरंग और बाह्य-निश्चय तथा व्यवहार दृष्टि से माने गए हैं। जीव के अंतरंग 4 प्राण हैं-(1) ज्ञान (2) दर्शन (3) सुख और (4) वीर्य तथा बाह्य प्राण 10 दस हैं
(1) श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण (2) चक्षु इन्द्रिय बल प्राण (3) घ्राण इन्द्रिय बल प्राण (4) रसना इन्द्रिय बल प्राण (5) स्पर्शन इन्द्रिय बल प्राण (6) मन बल प्राण (7) वचन बल प्राण (8) कायबल प्राण (9) श्वासोच्छ्वास बल प्राण एवं (10) आयु बल प्राण।
जीवों के दो प्रमुख भेद है-संसारी और मुक्त। संसारी कर्मबंधनों से युक्त हैं तथा मुक्त जीव इन बंधनों से मुक्त। संसारी जीवों में भी एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के जीव (वृक्ष, कीट आदि) तथा पंचेन्द्रिय जीवों में पशु-पक्षी आदि नीति की सीमा से परे हैं। सिर्फ मानव ही नीति की सीमा में आता है। 1. जीवति प्राणान् धारयतीति जीवः ।-आचार्य श्री आत्माराम जी-जैन तत्व कलिका, पंचम कलिका, पृष्ठ 81 टिप्पण 2. (क) जीवो उवओग लक्खणो।
-उत्तराध्ययन सूत्र, 28/10 (ख) उवओग लक्खणे जीवे।
-भगवती सूत्र, शतक 2, उद्देशक 10 (ग) उपयोगो लक्षणम।
-तत्वार्थ सूत्र, 2/8