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________________ जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन / 185 है। किसी अन्य को दुःखकारी नहीं होता', मैत्री आदि भावनाओं से युक्त होता है और यह अहिंसा भावना (कर्म से भी) से परिपूर्ण होता है। ऐसा धर्म वीतराग आप्त पुरुष के द्वारा उपदिष्ट होता है। अतः सच्चे देव, सच्चे गुरु तथा सच्चे धर्म पर हृदय तथा आत्मा की गहराइयों से श्रद्धा अथवा विश्वास करना सम्यग्दर्शन है। नव तत्त्व व्यवहार सम्यग्दर्शन का दूसरा लक्षण नव तत्वों की यथार्थ श्रद्धा किया गया है। अतः यह जान लेना आवश्यक है कि जैन धर्मानुमोदित नौ तत्व कौन से हैं, जिन पर श्रद्धा करने से जीव को सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है।। नौ तत्वों के नाम हैं-(1) जीव (2) अजीव (3) बंध (4) पुण्य (5) पाप (6) आस्रव (7) संवर (8) निर्जरा और (9) मोक्ष । तत्वार्थ सूत्र में 7 तत्व ही माने हैं, पुण्य-पाप की गणना तत्वों में नही की है तथा वहां क्रम भी भिन्न है-(1) जीव (2) अजीव (3) आस्रव (4) बंध (5) संवर (6) निर्जरा और (7) मोक्ष। किन्तु (7) और (9) की गणना अपेक्षाभेद मात्र है, इससे स्वरूप चिन्तन में कोई अन्तर नहीं आता। यद्यपि तत्वार्थ सूत्रकार ने भी आस्रव के दो भेद पुण्य और पाप माने हैं। लेकिन सिर्फ आस्रव के भेद पुण्य-पाप मान लेने से काम नहीं चलता क्योंकि पुण्य और पाप का बंध भी होता है तथा इनका फल भी जीव को भोगना पड़ता है। 1. समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए। -आचारांग, 1/8/3 2. (क) जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सत्व जीवाणं। (ख) जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। जं इच्छं परस्स वि य, एत्तियगं जिणसासणं। -उद्धृतः जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. 108 3. वचनाद्यनुष्ठानमविरुद्धाद् यथोदितं। ___ मैत्र्यादिभावसंयुक्तं तद्धर्म इति कीर्त्यते। -धर्मबिन्दु प्रकरण, 1 4. जीवाजीवा य बन्धो य पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो सन्तेए तहिया नव ॥ -उत्तरा, 28/14 5. जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षारतत्त्वम्। -तत्वार्थ सूत्र, 1/4 6. कायवाङ्सुनः कर्मयोगः ।1। स आम्रवः ।2। शुभः पुण्यस्य ।। अशुभः पापस्य।4। -तत्वार्थसूत्र, 6/1-4
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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