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जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन / 183
कारण यह है कि सत्य की रुचि ही नैतिकता की साधना को गति देने वाला प्रमुख प्रेरक तथा आधार है। जब तक मानव में सत्य - रुचि जागृत नहीं होगी, वह नैतिकता की ओर उन्मुख ही नहीं होगा । सत्यरुचि वह आधारभूत तत्त्व है जो व्यक्ति को नैतिकता की ओर बढ़ने के लिए, नैतिक जीवन जीने के लिए प्रबल प्रेरणा प्रदान करती है । इस अपेक्षा से जैन-दर्शन में सम्यक्त्व को नीति का - नैतिक जीवन का - नैतिक प्रगति का आधार माना गया है, जो उचित है और उन्नत, विशुद्ध नैतिक आचरण के लिए अनिवार्य है ।
जैन धर्म में सम्यक्त्व का स्वरूप
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जैनधर्म में मोक्ष-साधना' का प्रवेश द्वार सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन है इस पर कई अपेक्षाओं से विचार किया गया है तथा विभिन्न प्रकार से वर्गीकरण भी किया गया है । बड़े ही प्रभावशाली ढंग से सम्यक्त्व का महत्व बताकर मानव को इसे ग्रहण करने की प्रेरणा दी गई है।
सम्यग्दर्शन का लक्षण
जैन धर्म में सम्यग्दर्शन अत्यधिक चर्चित विषय रहा है । अतः इसके लक्षण भी विविध नयों और अपेक्षाओं से दिये गये हैं । किन्तु व्यवहार दृष्टि से सर्वसम्मत लक्षण इस प्रकार दिया गया है
पदार्थों का दुरभिनिवेश रहित यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।
दुरभिनिवेश का अर्थ कदाग्रह है, जिसका अभिप्राय है अपनी मिथ्या धारणा के प्रति अहंकारपूर्वक हठ करना ।
1. मोक्ष -साधना की अपेक्षा से सम्यक्त्व का महत्व बौद्ध और वैदिक दोनों परम्पराओं ने स्वीकार किया है
(क) सम्यक् दृष्टिकोण निर्वाण का किनारा है । -अंगुत्तरनिकाय, 10/12
(ख) सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति को कर्मबन्धन नहीं होता । - मनुस्मृति, 6/74
नोट - मनुस्मृति का यह कथन आचारांग ( 1 / 3 / 2 / 375) के 'सम्मत्तदंसी न करेइ पावं' इस वचन की ही पुष्टि करता है ।
(ग) श्रद्धावानंलभते ज्ञानम्, गीता, 4/39
(घ) सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है तथा वह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वैसा ही उसका स्वरूप है (वैसा ही वह बन जाता है ।)
- गीता 17/3
2. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप : देवेन्द्र मुनि शास्त्री, पृ. 105