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________________ जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन / 181 जबकि जिज्ञासा में सरलता और लक्ष्याभिमुखता होती है। जिज्ञासा में तत्व का निश्चय करने की भावना रहती है जबकि संशय अनिश्चय की अवस्था-दोलायमान स्थिति है। (14) विपरीत मिथ्यात्व-वस्तु का उसके स्वभाव के विपरीत रूप में जानना, समझना और वैसा ही निश्चय करना। (15) अज्ञान मिथ्यात्व-शुभाशुभ, तत्त्वातत्त्व के निर्णय की क्षमता का अभाव अज्ञान मिथ्यात्व है। स्थानांग सूत्र में इन्हीं पाँचों मिथ्यात्वों को (1) अनाभिग्रहिक (परंपरागत धारणाओं को बिना समीक्षा के स्वीकार करना), (2) आभिग्रहिक (किसी के उपदेश से प्रभाव में आकर सत्य तत्व को अस्वीकार करते रहना), (3) आभिनिवेशिक (असत्य मान्यता को भी अहंकार-वश हठपूर्वक पकड़े रहना), (4) सांशयिक (संशयशील बने रहना, तत्व का निश्चय न करना), और (5) अनाभोगिक (विवेक या ज्ञान क्षमता का अभाव) कहा गया है। (16) लौकिक मिथ्यात्व-लोकरूढ़ि में अविचारपूर्वक बंधे रहना। (17) लोकोत्तर मिथ्यात्व-परलौकिक उपलब्धियों के निमित्त स्वार्थवश धर्माचरण अथवा नैतिकता का आचरण करना अथवा उन धारणाओं से ग्रस्त रहना। (18) कुप्रावचनिक मिथ्यात्व-मिथ्या दार्शनिक विचारणाओं को स्वीकृत करना। (19) न्यून मिथ्यात्व-पूर्ण सत्य या तत्वस्वरूप को आंशिक सत्य समझना या न्यून मानना। (20) अधिक मिथ्यात्व-आंशिक सत्य को सबसे अधिक पूर्ण सत्य समझ लेना। (21) विपरीत मिथ्यात्व-वस्तु तत्व को उसके विपरीत रूप में समझना। (22) अक्रिया मिथ्यात्व-आत्मा को एकान्त रूप से अक्रिय मानना अथवा सिर्फ ज्ञान को महत्व देकर क्रिया (चारित्र) की उपेक्षा करना। (23) मूढ़दृष्टित्व-मूढ़ावस्था, जिसमें जीव को तत्व का निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। 1. विपरीत मिथ्यात्व 14वें क्रम में भी आ चुका है। अतः यहां इसका अभिप्राय मिथ्या अभिनिवेश समझना चाहिए। जिसमें विपरीतता का आवेश अथवा हठ रखा जाता है, इस मिथ्यात्व में अहंकार की प्रधानता होती है। -लेखक
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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