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180 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
मिथ्यात्व के जैन शास्त्रों में 25 प्रकार गिनाये गये हैं। उनमें से दस भेद तो ठाणांग में है और शेष 15 भेद यत्र-तत्र शास्त्रों में बिखरे हुए हैं।
ठाणांग (3) में उल्लिखित मिथ्यात्व के 10 भेद हैं(1) धर्म में अधर्म संज्ञा (2) अधर्म में धर्म संज्ञा (3) मार्ग में कुमार्ग संज्ञा (4) कुमार्ग में मार्ग संज्ञा (5) जीव में अजीव संज्ञा (6) अजीव में जीव संज्ञा (7) साधु में असाधु संज्ञा (8) असाधु में साधु संज्ञा (9) मुक्त में अमुक्त संज्ञा (10) अमुक्त में मुक्त संज्ञा
संज्ञा का अर्थ यहाँ समझ-समझना अथवा आग्रह रखना है। यह सब विपरीत अभिनिवेश और बुद्धि विपर्यय के परिणाम हैं।
मिथ्यात्व के अन्य 5 भेद यह हैं
(11) एकान्त मिथ्यात्व-वस्तु को अनेकान्तदृष्टि से अनन्तधर्मात्मक न मानकर एकान्त रूप से एक धर्मात्मक मानना, शेष धर्मों का अपलाप कर देना।
(12) वैनयिक मिथ्यात्व-परम्परागत धारणाओं को ज्यों की त्यों बिना ऊहापोह किये स्वीकार कर लेना।
(13) संशय मिथ्यात्व-संदेह की स्थिति में पड़े रहना, तथ्य का निर्णय न करना।
संशय और जिज्ञासा में अन्तर है। संशय मे लक्ष्य-विमुखता होती है,
(ग) पाश्चात्य दर्शन में भी मिथ्यात्व का उल्लेख प्राप्त होता है। वहां चार मिथ्या धारणाओं
का उल्लेख है(1) सामाजिक संस्कारों से प्राप्त-जातिगत मिथ्या धारणाएँ (Idola Tribus) (2) व्यक्ति द्वारा स्वयं बनाई गई मिथ्या धारणाएँ (Idola Specus) इन्हें सामान्य
शब्दों में पूर्वाग्रह (Prejudices) कहा जा सकता है। (3) असंगत अर्थ आदि (Idola Fori) इसे बाजारू मिथ्याधारणा अथवा विश्वास के ___नाम से अभिहित किया गया है।
(4) मिथ्या सिद्धान्त अथवा मान्यताएँ (Idola theatri) पश्चिमी दर्शनकारों की यह मान्यता है कि इन मिथ्या धारणाओं अथवा पूर्वाग्रहों से मुक्त होने के उपरान्त. ही. ज्ञान को यथार्थ और निर्दोष रूप में ग्रहण किया जा सकता.
-थिली : हिस्ट्री आफ फिलासफी, पृ. 287 (उद्धृत-सागरमल जैन : जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन, भाग 2, पृ. 42 साभार ।) 3. ठाणांग, ठाणा 10