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________________ नैतिक निर्णय / 175 वह व्यक्ति निर्दोष प्रमाणित होता है तो उसका जीवन लौटने में न्याय सक्षम नहीं है। न्याय के इस सिद्धान्त के अनुरूप ही नीति का विवेक-निर्णय का सिद्धान्त है। इसका हार्द यही है कि सतही तौर पर किसी भी बात का निर्णय नहीं करना चाहिए अपितु बहुत ही गहराई से छान-बीन कर ठोस जानकारी के आधार पर यथातथ्य निर्णय करना आवश्यक है अन्यथा नैतिक लगने वाले निर्णय भी घोर अनैतिक बनते देर नहीं लगती। विवेकपूर्ण नैतिक निर्णय के लिए नीति का यह श्लोक पूर्णतया सटीक है। सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। वृणुते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः॥ कोई काम सहसा नहीं करना चाहिए। अविवेक ही बड़ी-बड़ी आपत्तियों का कारण है। सोच-विचारकर कार्य करने वाले के पास संपदाएँ स्वयं ही चली आती हैं। कुछ कार्य नीति से परे भी सभी मानवीय क्रियाएँ नीतिशास्त्र के अन्तर्गत नहीं आतीं कुछ ऐसी भी क्रियाएँ हैं जो नीतिशास्त्र की सीमा से परे हैं। इस अपेक्षा से मानवीय क्रियाओं को दो भागों में विभाजित किया गया है (1) ऐच्छिक कार्य (Voluntary Actions) (2) अनैच्छिक कार्य (Non-Voluntary Actions) ऐच्छिक कार्य वे हैं, जिन्हें व्यक्ति इच्छापूर्वक करता है, इनमें मूलप्रवृत्तियों, संकल्प, संवेग आदि की भी प्रेरणा रहती है। इन्हीं कार्यों की अपेक्षा व्यक्ति को नैतिक अथवा अनैतिक कार्य करने वाला कहा जाता है और इन्हीं कार्यों पर नैतिक निर्णय लागू होता है। ___अनैच्छिक कार्य वे होते हैं जो स्वतः ही होते रहते हैं। इनमें व्यक्ति को किसी प्रकार की इच्छा, संकल्प, आदि करने की आवश्यकता ही नहीं होती, इनमें किसी प्रकार के संवेग भी नहीं होते। इनको स्वतः चालित (automatic) तथा गत्यात्मक (motory) क्रियाएँ कहा जाता है। यह सहज क्रियात्मक होते हैं। पाचन क्रिया, श्वासोच्छ्वास क्रिया, आदि ऐसी सभी क्रियाएँ अनैच्छिक कार्य हैं।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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