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176 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
इन क्रियाओं का उत्तरदायित्व कर्ता पर नहीं होता। अतः यह नीति शास्त्र और यहाँ तक कि धर्मशास्त्र, आचारशास्त्र आदि सभी शास्त्रों की सीमाओं से परे हैं, बाहर हैं।
ईर्यापथिकी क्रिया और सांपरायिकी क्रिया के रूप में जैन दर्शन ने भी इसी प्रकार की दो क्रियाएँ मानी हैं। ठाणांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन तत्वार्थसूत्र में क्रियाओं का वर्णन हुआ है। यद्यपि क्रियाओं की संख्या 13, 25, 39 आदि विभिन्न अपेक्षाओं से है किन्तु प्रमुख वर्गीकरण ईर्यापथिक और सांपरायिक यह दो प्रकार का ही है, इसी में सभी क्रियाएँ समाविष्ट हो जाती
नीतिशास्त्र की सीमा में आने वाली सभी क्रियाएँ सांपरायिक क्रियाएँ हैं, जिनके लिए कर्ता उत्तरदायी हैं। इन्हीं से व्यक्ति को नैतिक-अनैतिक कहा जाता है। क्योंकि यह क्रियाएँ राग-द्वेष, कषाय आदि से अनुरंजित, अनुप्राणित और प्रेरित होती हैं। यही Voluntary actions हैं।
इपिथिकी क्रियाएँ मन-वचन काय योग के परिस्पन्दन मात्र से सहज होती हैं। इनमे राग-द्वेष, संकल्प आदि का अंश नहीं होता, इसीलिए कर्मबंधन भी नहीं होता। चूंकि कर्ता इन क्रियाओं के लिए उत्तरदायी नहीं होता, इसीलिए ऐसी क्रियाएँ जिन्हें नीतिशास्त्र में अनैच्छिक क्रियाएँ (Non-Voluntary actions) कहा गया है, नीतिशास्त्र की सीमा में नहीं आतीं।
जैन दशन के अनुसार इयोपथिकी क्रिया अरिहन्तों (जीवनमुक्त परमात्मा) को लगती है, इसीलिए वे भी नीति से परे हैं।
उपसंहार-इस प्रकार नैतिक निर्णयों को मनोवैज्ञानिक, संवेगात्मक सामाजिक, परिस्थित्यात्मक अनेक तत्व प्रभावित करते हैं; लेकिन इनमें सबसे अधिक प्रभावशाली तत्व है-रोग-द्वेष, कषाय, संज्ञा आदि। जिनका प्राणीमात्र के जीवन में सतत सद्भाव बना रहता है। इनके बहाव में बह जाने पर निर्णय अनैतिक हो जाते हैं और जो व्यक्ति इन पर नियन्त्रण रखता है, इन्हें नियमित, परिसीमित कर देता है उसके निर्णय नैतिक होते हैं।
1. (क) ठाणांगसूत्र, स्थान 2 (ख) प्रज्ञापना पद 22 2. सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, दूसरा अध्ययन 3. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 31, गाथा 12 4. तत्वार्थसूत्र, अध्याय 6, सूत्र 5