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174 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
आचार्यश्री ने उन्हें बताया कि पांच कारणों से स्त्री पुरुष-सहवास के बिना भी गर्भवती हो सकती है
1. पुरुष वीर्य से संस्रष्ट स्थान को अपने गुह्य स्थान से आक्रान्त कर बैठी हुई स्त्री के योनि-देश में शुक्र-पुद्गलों का आकर्षण होने पर,
2. शुक्र-पुद्गलों से संस्रष्ट वस्त्र के योनि-देश में अनुप्रविष्ट होने पर,
3. पुत्रार्थिनी होकर स्वयं अपने ही हाथों से शुक्र-पुद्गलों को योनि देश में अनुप्रविष्ट कर देने पर,
4. दूसरों के द्वारा शुक्र-पुद्गलों को योनि-देश में अनुप्रविष्ट किये जाने पर और
5. नदी, तालाब आदि में स्नान करती हुई स्त्री के योनि-देश में शुक्र-पुद्गलों के अनुप्रविष्ट हो जाने पर।
किन्तु ऐसे गर्भ से जो पिंड उत्पन्न होता है उसमें पुरुष प्रदत्त अंग, अस्थि आदि नहीं होते और वह पिंड बुलबुले के समान कुछ ही क्षणों में स्वयं विनष्ट हो जाता है।
बादशाह ने खींवसीजी भंडारी से यह संपूर्ण रहस्य जानकर मृत्युदण्ड का आदेश स्थगित कर दिया और उस कन्या के चारों ओर कड़ा पहरा लगवा दिया। उस कन्या के गर्भ से जो पिंड निकला वह थोड़ी ही देर में बुलबुले के समान विनष्ट हो गया।
बहादुरशाह प्रभावित हुआ। उसने आचार्यश्री से जीव-वध न करने और मांस न खाने के नियम ग्रहण किये।
सामान्य दृष्टि से बादशाह का क्वारी कन्या को इस स्थिति में मृत्युदण्ड देना उचित ही कहा जाता, इसे सभी धर्मानुमोदित और नैतिक ही कहते, कोई भी इसे अनैतिक न कहता।
किन्तु नीति अथवा नैतिक निर्णय सामान्य दृष्ट्या नहीं लिए जा सकते। बहुत बार ऐसे निर्णय अनैतिक भी हो जाते हैं।
इसीलिए दण्ड निर्णय के विषय में और विशेष रूप से मृत्युदण्ड के निर्णय के विषय में आधुनिक न्याय की भी यही मान्यता है कि मृत्युदण्ड या तो दिया ही न जाए और यदि देना ही पड़े तो बहुत ही छान-बीन के बाद ही दिया जाए और यदि बाद में ऐसे तथ्य (facts) सामने आते हैं, जिनसे 1.स्थानांग सूत्र, स्थान 5, सूत्र 416 2. लेखक की जैन जगत के ज्योतिर्धर आचार्य, प्रकाश 2, पृ. 23-29 का सार संक्षेप