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नैतिक निर्णय / 173
जटिल परिस्थितियों में विवेकपूर्ण निर्णय
कभी-कभी मनुष्य के सामने ऐसी स्थिति समुत्पन्न हो जाती है, जो स्पष्टतः अधार्मिक, अनैतिक दिखाई देती है । स्पष्ट परिलक्षित होता है कि अमुक व्यक्ति ने निश्चित ही पापाचार किया है ।
ऐसी दशा में गम्भीर व्यक्ति का भी मानस खलबला उठता है, हृदय कठोर दण्ड सुना देता है, मृत्यु दण्ड भी दे देता है, उस व्यक्ति को बोलने तक का अवसर नहीं देता है ।
लेकिन नैतिकता का तकाजा है कि चाहे स्पष्टतः व्यक्ति अपराधी ही दृष्टिगत हो रहा हो, फिर भी आवेगों में बहकर कभी कोई निर्णय नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह धर्मानुमोदित दिखाई देने वाला निर्णय भी अनैतिक और पापपूर्ण बन जाता है।
ऐसी ही स्थिति अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह के सामने समुपस्थित हो गई थी जिसमें नैतिक निर्णय की प्रमुख भूमिका एक महान जैनाचार्य ने वहन की। घटना इस प्रकार है
बादशाहों के रनिवास तो बड़े होते ही हैं । उनके रनिवास में उनकी स्त्रियों (बेगमों) की संख्या अधिक होती है, और लड़कियाँ भी बहुत होती हैं।
बादशाह बहादुरशाह की अनेक पुत्रियों में से एक कुंवारी युवा पुत्री गर्भवती हो गई। यह सूचना प्राप्त होते ही बादशाह एकदम तिलमिला गये । उनकी आंखों से अंगारे बरसने लगे । बिना विशेष छानबीन किये और मामले को गहराई से समझे बिना ही आदेश दे दिया
“ऐसी पापिनी कन्या का मुंह भी देखना पाप है, उसे जल्दी से जल्दी खत्म कर दिया जाय ।"
जोधपुरनरेश अजीतसिंह जी के प्रधान खींवसीजी भंडारी ने यह आदेश सुना तो वह इस युवा कन्या से मिले, भांति-भांति के प्रश्न किये लेकिन उन्हें वह लड़की दुराचारिणी नहीं मालूम हुई। उन्होंने बादशाह को बहुत समझाया किन्तु वह अपने कठोर निर्णय से टस से मस न हुआ ।
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उस समय जैनाचार्य श्री अमरसिंह जी म. दिल्ली में ही विराजमान थे खींवसीजी भंडारी उनके दर्शन करने गये तो उनके मुंह पर उदासी थी । आचार्यश्री के पूछने पर उन्होंने अपनी उलझन प्रकट की - कन्या निर्दोष मालूम पड़ती है फिर भी बादशाह उसे दोषी मानकर मृत्युदण्ड देने पर उतारू हैं ।