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________________ 166 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (3) स्वतन्त्र विकल्प (Free will)-यद्यपि मानव निर्णय करने में स्वतन्त्र होता है किन्तु उसकी स्वतन्त्रता असीमित नहीं होती, इसमें उत्तरदायित्व का तत्व भी जुड़ा होता है, उसे लोक स्वतन्त्रता अर्थात् दूसरों की आजादी, सुविधा का भी ध्यान रखना पड़ता है। अतः वह आत्म-स्वातन्त्र्य और लोक स्वातन्त्र्य का समन्वय करके ही निर्णय लेता है तभी उसका निर्णय नैतिक बन पाता है। नैतिक निर्णय की प्रक्रिया का क्रम इस प्रकार है-नैतिक परिस्थिति, समस्या का विवेचन, नैतिक विकल्प, नैतिक मूल्यांकन, और नैतिक संकल्प। इस प्रक्रिया से गुजरते हुए ही मानव नैतिक निर्णय करके उसका कार्यान्वयन कर पाता है। सामाजिक रूढ़ियाँ नैतिक निर्णय को सामाजिक रूढ़ियाँ भी प्रभावित करती हैं। भारतीय समाज में मृत्युभोज, जातिप्रथा आदि सैकड़ों रूढ़ियाँ प्रचलित हैं। कोई व्यक्ति इन रूढ़ियों में विश्वास नहीं करता, किन्तु किसी सम्बन्धी की मृत्यु पर, समाज में सम्मान बनाए रखने की दृष्टि से मृत्यु भोज देने का निर्णय उसे करना पड़ता है। इसी प्रकार की अन्य रूढ़ियों के पक्ष में उसे निर्णय करना पड़ता है। यद्यपि नीतिशास्त्र की दृष्टि से ऐसे निर्णय नैतिक नहीं है, किन्तु सम्मान का मूल्य अधिक होने से वह इन निर्णयों को करने के लिए विवश हो जाता है। किन्तु अपने स्वतन्त्र संकल्प पर ठेस लगने से वह घोर अन्तर्द्वन्द्व में फंस जाता है। ऐसी जटिल स्थिति से त्राण पाने के लिए जैनाचार्यों ने एक नैतिक मार्ग सुझाया है जैनियों को सभी लौकिक विधियाँ (रूढ़ियाँ) उसी सीमा तक मान्य हैं, जब तक सम्यक्त्व की हानि न होती हो और व्रतों में दूषण (किसी भी प्रकार का दोष) न लगे। प्रस्तुत मार्ग का अनुसरण करने से व्यक्ति को नैतिक परिस्थितियों और सामाजिक रूढ़ियों की जटिलताओं से भी उचित विकल्पों और साधनों की 1. सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणं। सोमदेव सूरि-उपासकाध्ययन
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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