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164 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
चरित्र निर्माण का प्रधान तत्व है-आत्म-गौरव का स्थायी भाव (Self regarding sentiment)। मानव में आत्म-गौरव की भावना सबसे प्रबल होती है। सुख-दुःख, दण्ड, पुरस्कार, निन्दा-प्रशंसा आदि की परिस्थितियों को पार करने के बाद, मानव अपने आत्म-गौरव का एक स्थायी भाव निर्मित कर लेता है। इसमें सामाजिकता, देश-काल की परिस्थितियाँ, आदर्श, समायोजन आदि का भी विशेष हाथ होता है। धर्म एवं नैतिकता की भावना का भी सदाचरण में महत्व है और सदाचरण से ही नैतिक चरित्र का निर्माण होता है।
वास्तव में देखा जाय तो चरित्र मानसिक (Mental) संगठन की एक सुगठित क्रिया है अथवा चरित्र निर्माण एक सुगठित मानसिक (और व्यावहारिक भी) प्रक्रिया है।
आचरण चरित्र का व्यावहारिक पक्ष है। यह सभी को दिखाई देने वाला प्रगट बाह्य रूप है। मानव जो कुछ व्यवहार रूप में करता है, वह उसका आचरण कहलाता है। चरित्र और आचरण का भेद स्पष्ट करने के लिए ही चरित्र के लिए अंग्रेजी में Character और आचरण के लिए Conduct शब्द आते हैं।
संकल्प, चरित्र और आचरण परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। संकल्प इच्छाओं आदि का नियन्त्रण और उनका मार्गान्तीकरण करने वाली शक्ति है
और साथ ही चरित्र का निर्माण करती है, और इसे प्रभावित करती है। चरित्र सुगठित मानसिक क्रिया है, यह मानव की आन्तरिक नैतिकता है और आचरण उस नैतिकता का प्रगट बाह्य रूप है।
मानव की नैतिकता के लिए यह तीनों ही समान रूप से उत्तरदायी होते हैं। सत्संकल्प से सुन्दर चरित्र का निर्माण होता है और सुन्दर चरित्र वाला व्यक्ति ही शुभ आचरण कर सकता है।
भारतीय दर्शन की भाषा में इसे सत्यं, शिवं, सुन्दरं कहा जा सकता है। सत्संकल्प से ही कल्याणकारी चरित्र का निर्माण होगा और फिर जो भी आचरण होगा, शुभ होगा, सुन्दर होगा।
यह सभी नैतिक निर्णयों को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक तत्व हैं। क्योंकि इन सभी का सीधा और गहरा सम्बन्ध मानव के मन-मस्तिष्क से है। ये मानव के अन्तरंग में उद्भूत होते हैं और उसके नैतिक निर्णयों को प्रभावित करते हैं।