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नैतिक निर्णय / 161
मनोविज्ञान के अनुसार ऐसी परस्पर विरोधी इच्छाएँ मानव मन में उठा ही करती हैं, प्रत्येक इच्छा अपनी संतुष्टि चाहती है और इस रूप में इन इच्छाओं में संघर्ष होता रहता है।
(3) इच्छाओं के परिणामों का नैतिक विश्लेषण - मानव विकसित चेतना वाला प्राणी है। इच्छाओं के पारस्परिक संघर्ष में वह नैतिक दृष्टि से उन इच्छाओं के परिणामों का नैतिक विश्लेषण करता है, गुण-दोषों का विचार करता है, उनके उचित अनुचित परिणामों पर गहरी दृष्टि डालता है जैसा-कि सीता को वनवास देने के निर्णय से पहले अन्तर्द्वन्द्व में फँसे श्रीराम ने किया ।
(4) नैतिक निर्णय - अब तक की तीनों अवस्थाओं में तो मूल प्रवृत्तियों की प्रमुखता थी । तीसरी स्थिति में नैतिकता और मूल प्रवृत्तियों का संघर्ष रहा। किन्तु इस चौथी स्थिति में मानव किसी एक इच्छा की पूर्ति का निर्णय कर लेता है । यही निर्णय मानव को नैतिक अथवा अनैतिक के रूप में व्यक्त करता है । नैतिक मानव का निर्णय नैतिकतापूर्ण होता है और जो मूलप्रवृत्तियों के बहाव में बह जाता है, वह अनैतिक निर्णय भी कर सकता है । किन्तु ऐसा निर्णय नीतिशास्त्र की दृष्टि से अनुचित है ।
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नैतिक निर्णय लेते समय सर्वाधिक महत्व मूल्य का होता है । व्यक्ति अपनी इच्छाओं का मूल्य (value) निर्धारित करता है और जिस इच्छा का मूल्य वह सर्वाधिक समझता है, उसे पक्ष में निर्णय कर देता है । श्रीराम ने लोक भावना को सर्वाधिक महत्व दिया, अतः उन्होंने सीता को वनवास देकर अपनी इसी लोक भावना को सन्तुष्ट किया ।
(5) चरित्र और आचरण - चरित्र इच्छा और आदतों का संगठन है तथा आचरण से व्यक्ति के ऐसे कार्यों से तात्पर्य होता है, जिनके आधार पर व्यक्ति की नैतिक दृष्टि से प्रशंसा या निन्दा की जाती है ।
व्यक्ति का आचरण ही धीरे-धीरे उसके चरित्र के रूप में परिणत हो जाता है, चरित्र बन जाता है |
नैतिक निर्णय का आधार व्यक्ति की इच्छा-शक्ति, संकल्प-शक्ति और अभिलाषाओं की मूल्यवत्ता है । निर्णय के बाद मनुष्य उसको आचरण में लाता है, क्रियान्वयन करता है।
अच्छे कार्यों के आचरण से व्यक्ति का चरित्र अच्छा बनता है, वह नैतिक कहलाता है और अशुभ (बुरे) कार्यों को करने से उसका चारित्रिक पतन होता है तथा समाज उसे अनैतिक मानता है ।