________________
160 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
चाहता है, इसके लिए वह प्रयास करता है और ज्यों ही वह कमी पूरी हुई कि उस इच्छा की संतुष्टि हो जाती है। इसी को इच्छाओं का पूर्ण अथवा सन्तुष्ट होना कहा जाता है।
इच्छापूर्ति से प्राणी को एक प्रकार के सुख की अनुभूति होती है। इच्छाओं की और इच्छातृप्ति से सुख की अनुभूति होती है और वह इच्छाओं की चेतना कही जाती है।
(2) परस्पर विरोधी इच्छाओं का संघर्ष-अन्य सभी प्राणियों की इच्छाएँ सामान्य होती हैं, सिर्फ आहार, भय, मैथुन, परिग्रह तक ही सीमित रहती है (जैसा कि संज्ञाओं के प्रथम वर्गीकरण में बताया गया है)। भूख लगी-आहार की इच्छा हुई, जैसा भी भोज्य पदार्थ मिला, उदरस्थ कर लिया; भय का कारण उत्पन्न हुआ, भाग गये, मैथुन की इच्छा हुई, पूरी कर ली।
आदि
___ पशु जगत तक यही क्रम है; किन्तु मानव की इच्छाएँ विभिन्न प्रकार की और असीमित हैं। इसे भोजन के लिए भी स्वादिष्ट भोजन की इच्छा होती है और स्वादु भोजन से ही वह तृप्त होती है। इसी प्रकार अन्य इच्छाओं के बारे में भी कहा जा सकता है।
जैसे नींद आने पर भी हवादार शान्त स्थान, आरामदायी विस्तर तकिया आदि की भी इच्छा रहती है।
फिर मानव की इच्छाएँ शारीरिक तो होती ही हैं, मानसिक और भावात्मक भी होती है। वह मैथुन सेवन के साथ-साथ भावात्मक प्रेम सम्बन्ध की भी इच्छा करता है। उसे विभिन्न प्रकार के संग्रह से भावात्मक संतुष्टि प्राप्त होती है। यदि कोई व्यक्ति धार्मिक वृत्ति वाला है तो उसे सत्संग, शास्त्र वाचन आदि की इच्छा रहती है।
अनेक प्रकार की इच्छाओं के कारण उन इच्छाओं में संघर्ष होना अवश्यम्भावी है क्योंकि दो विरोधी इच्छाओं का एक साथ सन्तुष्ट होना असम्भव है। एक पौराणिक उदाहरण लीजिए-व्यक्तिगत रूप से राम सीता को वनवास देना नहीं चाहते थे किन्त लोकापवाद को शान्त करने की इच्छा भी उनके मन में थी। इन दो विपरीत इच्छाओं की पूर्ति असंभव थी। राम अन्तर्द्वन्द्व में फँस गये। आखिर में उन्होंने सीताजी को वनवास देने का निर्णय किया। 1. उत्तराध्ययन सूत्र, 9/48-इच्छा हु आगास समा अणंतिया।