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158 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(3) तृतीय वर्गीकरण-(1) आहार, (2) भय, (3) मैथुन, (4) परिग्रह, (5) सुख, (6) दुःख, (8) विचिकित्सा (घृणा), (9) क्रोध, (10) मान, (11) माया, (12) लोभ, (13) शोक, (14) लोक, (15) धर्म और (16) ओघ।'
इन वर्गीकरण में संसार के सभी जीवों (क्षुद्र कीट, पशु-पक्षी और मानव) इन सबकी शारीरिक, मानसिक सभी प्रेरणाओं का समावेश हो जाता है। मैक्डूगल द्वारा प्रतिपादित 14 मूलप्रवृत्ति और उनसे संलग्न सभी संवेग इसमें गर्भित हैं। मैक्डूगल जिसे समूह भावना कहता है, जैन दर्शन में उसे ओघ संज्ञा कहा है।
प्रथम वर्गीकरण में सिर्फ शारीरिक प्रेरक गिनाये गये है; जबकि द्वितीय और तृतीय वर्गीकरण में शारीरिक के साथ-साथ मानसिक-सामाजिक सभी प्रेरकों को समाविष्ट कर लिया गया है।
इस प्रकार जैन दर्शन का प्रेरकों का वर्णन अधिक वैज्ञानिक और सम्पूर्ण लगता है।
इन संज्ञाओं के साथ-साथ जैन दर्शन ने लेश्याओ का भी वर्णन किया है। लेश्यायें 6 हैं
(1) कृष्णलेश्या-अधिक क्रूर और क्लिष्ट मनोभावनाएँ। (2) नीललेश्या-कृष्णलेश्या की अपेक्षा कम क्रूर तीव्र मनोभावनाएँ। (3) कापोतलेश्या-अशुभ मनोवृत्तियाँ, छल-कपट का मनोभाव। (4) तेजोलेश्या-शुभ मनोवृत्ति, सुखापेक्षी मनोभाव। (5) पद्मलेश्या-शुभतर मनोभाव-कषायों आदि की उपशांतता। (6) शुक्ललेश्या-शुभतम मनोभाव, मृदु व्यवहार, मन-वचन-कर्म की
प्रवृत्तियों में एकता, स्वकर्तव्य परिपालन, किसी को भी दुःखी न
करने की प्रवृत्ति। यह लेश्या सिद्धान्त मनोविज्ञान और नीतिशास्त्र की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। यह मन की प्रवृत्तियों की तो विवेचना करता ही है, साथ ही मानव की प्रवृत्तियों की नैतिक स्तरीयता का भी सर्वांगपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाला मानव तो प्रायः अनैतिक होता ही है, क्योंकि उसमें क्रोध, लोभ आदि कषायों की तीव्रता होती है, वह छल-कपट
भी करता है। ___ 1. आचारांग, शीलांक वृत्ति, पत्रांक 11
2. उत्तराध्ययन सूत्र, लेश्या अध्ययन, 34/21-32