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नैतिक मान्यताएँ / 151
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धर्मशास्त्रों में इसे 'दैवी-आसुरी' संघर्ष कहा गया है अर्जुन के सामने यही स्थिति आ गई थी जब उसने रणभूमि में अपने शस्त्रास्त्र रख दिये थे । उसके सामने एक ओर गुरुजनों तथा अपने कुल - परिवार का मोह था तथा दूसरी ओर क्षत्रिय धर्म का पालन । श्रीकृष्ण के समझाने और यथार्थ स्थिति पर चिन्तन करने से उसने क्षत्रिय धर्म का पालन किया ।
(4) बुद्धिपरक जीवन - बुद्धिपरक जीवन से अभिप्राय - मानवता के अनुसार जीवन जीना । यद्यपि मानव पाशविक और मानवीय - दोनों में से किसी भी एक प्रवृत्ति को चुन सकता है किन्तु पाशवीय प्रवृत्ति अनैतिक होती है और सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक रूप से नीतिशास्त्र अनैतिकता को कोई स्थान नहीं देता । इसीलिए नीतिशास्त्र बुराई की स्वतंत्रता मानव को नहीं देता । इसके अनुसार मानव अच्छे कार्य करने में स्वतंत्र है ।
अतः बुद्धिपरक जीवन का अर्थ नीतिशास्त्र के अनुसार सत्कर्म या शुभ कार्य करते हुए जीवन व्यतीत करना है।
(5) बौद्धिक मांगों का चुनाव - बुद्धिपरक जीवन जीने की स्वतंत्रता भी पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है । इसका कारण यह है कि बौद्धिक माँगें भी अनेक प्रकार की हैं। उन सभी को तृप्त करना असम्भव है ।
उदारहण के लिए कोई व्यक्ति नैतिक जीवन व्यतीत करना चाहता है, इस बारे में वह धर्म ग्रन्थों-नीति सम्बन्धी ग्रन्थों का अवलोकन करता, धर्मोपदेशकों तथा नीतिशास्त्रियों के विचारों को सुनता है, पढ़ता है, मनन करता है तो उलझन में पड़ जाता है ।
विभिन्न धर्मग्रन्थ और नीति संबंधी ग्रंथों में तो परस्पर विरोधी बातें तो मिलती ही हैं, स्वयं एक ही धर्मोपदेशक एक स्थान पर एक बात या आचरण को नीति या धर्म कहता है और वही दूसरे स्थान पर पहली बात के सर्वथा विपरीत और विरोधी बात कहता है या कार्य करता है ।
ऐसी स्थिति में व्यक्ति को अनेक बौद्धिक मांगों में से किसी एक माँग को चुनना पड़ता है । यथा - वैदिकी हिंसा (जिसको वेदों में अहिंसा - वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" कहा गया है) और अहिंसा में से किसी को चुनना । यह स्वतंत्रता बौद्धिक मांगों में से किसी एक को चुनने की स्वतंत्रता है, जो नैतिक जीवन के लिए अनिवार्य है ।
(6) पूर्ण स्वतन्त्रता - इसका अभिप्राय आचार, विचार और वचन को