________________
150 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
चूँकि आत्म-निर्धारण का विधायक तत्व स्वापेक्षित है तथा इस बात पर निर्धारित है कि आत्मा कितना अपने को अन्य निर्धारण से बचाती है; अतः अन्य निर्धारण की अपेक्षा से नीतिशास्त्र में इस प्रतिषेधक तत्व का अधिक महत्व है। व्यावहारिक होने से इस प्रतिषेधक तत्व के कई तारतम्य भी हैं।
स्वतन्त्रता का तारतम्य
प्रतिषेधक तत्व के अनुसार स्वतन्त्रता के कई अर्थ हैं और इन अर्थों में तारतम्य है। यह तारतम्य निम्न स्तर से उच्च स्तर तक है। नैतिक दृष्टि से कोई भी व्यक्ति उच्च स्तर पर तुरन्त स्वतन्त्र नहीं हो सकता; हाँ, निम्न स्तर पर स्वतन्त्र हो सकता है।
स्वतंत्रता के तारतम्य नीतिशास्त्रियों द्वारा निम्न प्रकार से निर्धारित किये गये हैं
(1) एक प्रेरणा के विषयों में चुनाव-जब मनुष्य अपनी किसी प्रेरणा के विषय में चुनाव करता है, तो उस समय अपनी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करता है। उदाहरणार्थ, कोई व्यक्ति नया सूट सिलवाना चाहता है तो किस रंग का कपड़ा पसन्द करे, यह उसकी इच्छा पर निर्भर है। वस्तुतः यह स्वतन्त्रता है, अप्रियता से निवृत्ति।
(2) प्रेरणाओं की तृप्ति में चुनाव-जब दो विभिन्न प्रेरणाएँ व्यक्ति को एक ही समय अपनी-अपनी तप्ति के लिए प्रेरित करती हैं, तो उनमें से एक को चुनने के लिए व्यक्ति स्वतंत्र होता है। जैसे-किसी महात्मा का प्रवचन सुनने जाय अथवा टी. वी. पर पिक्चर देखे-इन दोनों में से किसी एक को भी चुनने के लिए व्यक्ति स्वतन्त्र है।
(3) प्रेरणा और बुद्धि की तृप्ति में चुनाव-यहाँ प्रेरणा और बुद्धि के अन्तर को समझ लेना आवश्यक है। प्रेरणा अधिकतर संवेगों (instincts) द्वारा उत्पन्न होती है और बुद्धि विवेकजनित है। इसी अपेक्षा से बुद्धि को दैवी और प्रेरणा की आसुरी भी कह दिया जाता है। यहाँ बुद्धि का अर्थ सुबुद्धि ही ग्रहण करना चाहिए।
जब बुद्धि और प्रेरणा में संघर्ष होता है तो दोनों ही व्यक्ति से अपनी-अपनी तृप्ति की माँग करती हैं, तब व्यक्ति अनिश्चय की स्थिति में आ जाता है, मोह-विमूढ़ हो जाता है। उन दोनों में से किसी भी एक को चुनना व्यक्ति के लिए बहुत कठिन होता है।