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नैतिक मान्यताएँ / 147
4. ईश्वर की सत्ता
सामान्यतः यह प्रश्न उठाया जाता है-नैतिक प्रगति की पराकाष्ठा कहां है? नीतिशास्त्र का उत्तर है-निःश्रेयस् प्राप्ति में। और यह निःश्रेयस् क्या है? इसका समाधान दर्शन देता है-वह समाधान है-ईश्वर बनने में अथवा ईश्वरत्व की प्राप्ति में। ___ इस प्रकार अन्ततोगत्वा नीतिशास्त्र ईश्वर की सत्ता स्वीकार करता है। काण्ट ने ईश्वरीय सत्ता के लिए दो प्रकार की नैतिक युक्तियाँ दी हैं- प्रथम, नैतिक जीवन के लिए सुख और श्रेय का समन्वय आवश्यक है, क्योंकि नैतिक कर्म श्रेय है और सुख उसका फल है। __द्वितीय, यदि निःश्रेयस् का अनुसंधान करना मानव का नैतिक कर्तव्य है तो इसे (निःश्रेयस् को) साध्य होना चाहिए और साथ ही ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण भी होने चाहिए जिन्होंने उस निःश्रेयस् को सिद्ध करके उत्तम सुख उपलब्ध किया है।
इसी प्रकार कर्तव्य के नियोग' और आत्म विधायक विवेक की युक्ति देकर काण्ट ने ईश्वरीय सत्ता की सिद्धि की है।
अतः उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ईश्वरीय सत्ता की स्वीकृति नैतिकता का एक प्रमुख आधार है। इसका कारण यह है कि सुख की प्राप्ति नैतिकता का चरम लक्ष्य है और ईश्वरत्व में ही अनन्त तथा अव्याबाध सुख है। इसलिए ईश्वरीय सत्ता नैतिक आचार-विचारों की प्रेरणा नीतिशास्त्र का सर्वमान्य आधार
स्वतन्त्रेच्छा (इच्छा स्वातंत्र्य)
नीतिशास्त्र के अनुसार ईश्वरीय सत्ता की स्वीकृति का यह अभिप्राय नहीं है कि मानव अथवा प्राणीमात्र ईश्वर के हाथ की कठपुतली है, ईश्वर की इच्छा से ही सारी मानवीय प्रवृत्तियां होती हैं। ईश्वरेच्छा बलीयसी-यह सिद्धान्त नीतिशास्त्र को मान्य नहीं है।
1. The categorical imperative leads direct to God and affords surety of this reality.
-Kant's selection from Opus postumum, Scribner's p. 372 4. God to the morally practical self-legislative reason.
-Opus postumum, quoted in Kant's selections, p. 373