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146 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
___ अन्य सभी आत्मवादी दर्शन आत्मा की शाश्वतता में विश्वास करते
अतः आत्मा की शाश्वतता का दार्शनिक सिद्धान्त नीतिशास्त्र का एक प्रमुख आधार है क्योंकि सम्पूर्ण नीति, नैतिक नियम, शुभ आदि-नीतिशास्त्र का पूरा का पूरा महल आत्मा की अमरता के सिद्धान्त पर ही टिका हुआ है, इस सिद्धान्त के अभाव में नीतिशास्त्र का महल ताश के पत्तों के समान बिखर जायेगा।
3. प्रगति की अनिवार्यता
प्रगति का अर्थ नैतिक विकास है। इस प्रगति के दो मापदण्ड हैं-सुख और श्रेय। यदि आज के मानव भूतकाल के मानवों से अधिक सुखी हैं और कल्याण पथ की ओर बढ़े है तो अवश्य ही नैतिक प्रगति हुई है। इसी प्रकार यदि भविष्य के मानव भी सुख और कल्याण के पथ पर बढ़ेंगे तो नैतिक प्रगति हुई मानी जायेगी।
प्रगति का सिद्धान्त गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के विपरीत है। गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक वस्तु पृथ्वी की ओर-नीचे की ओर आती है; जबकि प्रगति का सिद्धान्त ऊर्ध्वमुखी है। प्रगति की अनिवार्यता नैतिकता के लिए अनिवार्य है।
अरबन ने कहा है-हमें इसकी (प्रगति की) अनिवार्यता में इस कारण विश्वास करना पड़ता है कि हम जानते हैं, यदि यह न हो तो, सम्पूर्ण नैतिक प्रत्यय व्यर्थ और निरर्थक हैं।'
नैतिक प्रगति का यह सिद्धान्त भगवान महावीर के इस कथन पर आधारित है कि जीव क्रमशः उन्नति करता हुआ मुक्त होता है।
गीता में श्रीकृष्ण ने भी यही बात कही है कि-प्रयत्नपूर्वक साधना में लगा योगी अनेक जन्मों में थोड़े-थोड़े संस्कार एकत्र करके उन जन्मों में संचित कर्म से पापरहित होकर परम गति (निःश्रेयस्) को प्राप्त करता है।
1. If we believe that progress is necessary, it is only because we
know that if it is not, moral effort in the end meaningless and
futile. -W.M. Urban : Fundamentals of Ethics, p, 436 2. श्रीमद्भगवद्गीता, 6 145