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________________ नैतिक मान्यताएँ / 145 । अतः हेतुवाद और फलवाद का आश्रय लेते हुए भी नीतिशास्त्र नैतिकता के निर्णय के लिए भावात्मक शुभ अथवा अशुभ का आधार लेता है, ठीक उसी तरह जैसे कि भगवान महावीर के वचन ओघनियुक्ति नामक ग्रंथ में संकलित किये गये हैंगीता में भी यही बात कही है न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तात! गच्छति। (अच्छा कर्म करने वाले की दुर्गति नहीं होती) 2. आत्मा की अमरता हेतुवाद और फलवाद से यह सिद्धान्त फलित होता है कि कर्मों का फल आत्मा को भोगना आवश्यक है। यानी कर्मावस्था का कर्ता और फलावस्था का भोक्ता एक ही व्यक्ति-और सही शब्दों में वही आत्मा है। इसका फलित यह है कि आत्मा अमर है। यदि आत्मा अमर न हो तो कर्म और फलभोग में अनवस्था हो जायेगी। कर्म कोई करेगा और फल किसी दूसरे को भोगना पड़ेगा। बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद में आचार्य हेमचन्द्र ने यही सबसे बड़ा दोष बताया है। यदि आत्मा अमर न हो तो विकास किसका होगा? नैतिक विकास (Moral Progress) की दृष्टि से काण्ट ने भी आत्मा की अमरता अथवा शाश्वतता को स्वीकार किया है। वह निःश्रेयस् को नैतिकता का सर्वोत्तम लक्ष्य (Summum Bonum) स्वीकार करके कहता है कि यह अनन्त प्रगति केवल इस मान्यता पर सम्भव है कि मनुष्य के व्यक्तिव और अस्तित्व की स्थिरता अनन्त है-आत्मा अमर है। इस प्रकार आत्मा की अमरता, नैतिक नियमों से अनिवार्यतः सम्बन्धित होने के कारण नीतिशास्त्र की एक व्यवसायात्मक बुद्धि की मान्यता है। भगवान महावीर ने तो बहुत पहले ही कह दिया है कि आत्मा का कभी नाश नहीं होता-आत्मा अमर है। 1. (क) नत्थि जीवस्स नासो त्ति।। -उत्तराध्ययन सूत्र, 2/27 (ख) एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा... -अमितगति द्वात्रिंशिका (ग) एगो में सासदो अप्पा... -नियमसार, 99 (घ) णिच्चो अविणासी सासओ जीवो -दशवैकालिक, नि. भाष्य 42 (च) अहं अव्वए वि, अहं अवट्ठिए वि -ज्ञाता सूत्र, 1/9
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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