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________________ 144 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन नीतिशास्त्र का दार्शनिक आधार जितने भी दार्शनिक सिद्धान्त हैं, वे सभी नीतिशास्त्र के आधार माने जा सकते हैं। किन्तु यहां प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्तों का नीति के आधार के रूप में विवेचन अपेक्षित है । 1. हेतुवाद और फलवाद इसे दार्शनिक शब्दों में कार्य-कारणवाद कहा जाता है । इसका अभिप्राय है जैसा कारण होता है, वैसा ही कार्य होता है । उदाहरणतः बुरे कार्य का परिणाम बुरा होगा, हिंसा का फल बुरा होगा। जैसाकि आचार्य हेमचन्द्र ने कहा हैहिंसा का फल लंगड़ापन, कोढ़ीपन, हाथ-पैर आदि अंगों की विकलता आदि के रूप में मिलता है।' सामान्यतः ऐसा ही होता है 1 हिंसा का सामान्य अभिप्राय किसी को मारना, त्रास देना, उसके अंगों- उपांगों का छेदन करना आदि है । लेकिन डाक्टर भी रोगी की शल्य चिकित्सा करता है, उसके अंगोपांगों का छेदन - भेदन करता है, तो क्या यह भी हिंसा कही जायेगी? क्या डाक्टर को भी अशुभ फल भोगना पड़ेगा? यदि ऐसा है तो डाक्टर का कार्य अनैतिकता की श्रेणी में आ जायेगा। जबकि प्रत्येक दृष्टि से डाक्टर का कार्य नैतिक माना जाता है और है भी । यदि शल्य क्रिया करते समय मरीज का प्राणान्त हो जाय तो भी उसका कार्य नैतिक है, शुभ है, रोगी के हित के लिए है, जीवन बचाने के लिए है । वास्तव में, हेतुवाद का हार्द है भावना | भावों के अनुसार ही शुभाशुभत्व का निर्णय होता है और उसी के अनुसार शुभ अथवा अशुभ फल की प्राप्ति प्राणी मात्र को होती है । ओघनियुक्ति में भी यही बात कही है- अहिंसकत्व का निर्णय अध्यात्म-विशुद्धि की दृष्टि से है, बाह्य हिंसा-अहिंसा की दृष्टि से नहीं ।" 1. पंगु - कुष्टि - कुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसा फलं सुधीः । हेमचन्द्राचार्यः योगशास्त्र, प्रकाश 2, श्लोक 19 2. अज्झत्थ विसोहीए; जीवनिकाएहिं संथडे लोए । देसियमहिंसगत्तं, जिणेहि तेलोक्कदरिसीहिं । - ओघनियुक्ति, 747
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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