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________________ नैतिक मान्यताएँ / 143 (2) इनमें मानव की निष्ठा अनिवार्य होती है । ( 3 ) यह परम्परासिद्ध होती है और प्रवर्तमान रहती है I । (4) बुद्धि द्वारा इनका खण्डन किया जा सकता है, किन्तु व्यवहार में इनका खण्डन सम्भव नहीं है । जैसे - नास्तिकवादी चार्वाक दर्शन ने बुद्धि और तर्क द्वारा आत्मा के अस्तित्व का खण्डन कर दिया, किन्तु व्यवहार में आत्मा का खण्डन न कर सका, आत्मा के बारे में जन-जीवन की निष्ठा को न हिला सका। (5) यह बुद्धिजीवी विवेचनायें नहीं हैं, अपितु नैतिकता का आधार हैं, व्यावहारिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। ( 6 ) लोग इनकी उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील होते हैं क्योंकि पूर्वमान्यताओं की सत्यता लोगों के मनोरथ और मनोकामनाएँ होने से बढ़ती हैं । जैसे - मुक्ति की सत्यता लोगों के इस ओर प्रयत्नशील होने से मानव हृदय में दृढ़ होती है। दृढ़ (7) इनका अस्तित्व समाज की सुव्यवस्था और व्यक्ति की नैतिक उन्नि के लिए आवश्यक है, क्योंकि यह चेतनाशील और विचारपूर्ण होती हैं। ( 8 ) यह सत्कर्म और नैतिक व्यवहार का आधार होती हैं तथा इन ( सत्कर्मों और नैतिक व्यवहार) के फल में कार्य-कारण भाव होता है; यथा—अच्छे कर्मों का फल शुभ होता है । ( 9 ) यह अमूर्त मान्यताओं (जैसे आत्मा की, मोक्ष की मान्यता आदि ) को वस्तुगत वास्तविकता - यथार्थता प्रदान करती है । इस कारण ये मानवों द्वारा दृढ़ता से धारण की जाती हैं । (10) यह पुष्ट दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित होती हैं । यही कारण है कि पूर्व मान्यताओं का नैतिक जीवन में इतना अधिक महत्व है। जैसाकि उपर्युक्त पंक्तियों में कहा गया है कि यह अभ्युपगम पुष्ट दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित है, इसीलिए आधुनिक नीतिशास्त्री नीतिशास्त्र के आधार रूप में दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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