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142 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन रीति-रिवाजों के अनुकूल हुआ तो उसे सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है, और उस आचरण को नैतिक मान लिया जाता है। __नैतिक आचरण का तात्पर्य सामाजिक मानदण्डों के अनुकूल आचरण है। यही बात 'निषिद्ध देशकाल चर्या का त्याग' इन शब्दों द्वारा आचार्य हेमचन्द्र ने कही है।
अरबन ने कहा है-वस्तुतः नैतिकता की मान्यताएँ, वे सत्य हैं, जिनके
सहारे मानव अपना जीवन व्यतीत करते हैं, और यदि कहीं ये मान्यताएँ (सत्य) मानव द्वारा भ्रम और भूल में परिणत हो जायें (अथवा हम इन सत्यों के विषय में भ्रमित हो जॉय) तो हमारा जीवन ही, सही अर्थों में जीवन न रहे। (हमारे जीवन की गतिविधियां और क्रिया-कलाप ही अव्यवस्थित हो जायें।)2 इससे स्पष्ट है कि नैतिक मान्यताओं का जीवन में बहुत महत्व है। इन्हें अभ्युपगम (postulate) भी कहा जाता है।
अभ्युपगम अथवा नैतिक मान्यताओं के विषय में यह ज्ञातव्य है कि ये किसी भी समाज में बहुत पहले से प्रवर्तमान होती हैं। इनका उद्गम खोजना सरल नहीं है। ये समाज द्वारा स्वीकृत रीतियां, परम्पराएं, विश्वास और धारणाएं हैं; उदाहरण के लिए उत्तराध्ययन में कहा गया है
(आत्मा) ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से इन पर श्रद्धा करता है, चारित्र से (नवीन कर्मों के आश्रव का) निरोध करता है और तप से परिशुद्ध (पूर्व संचित कर्मों का क्षय) होता है।
इस गाथा में आत्मा की अमरता, कर्मों द्वारा आत्मा का बन्धन, ईश्वर सत्ता, आत्मा की कर्म बन्धनों से स्वतन्त्र होने की शक्ति, तथा आत्म स्वातंत्र्य-यह सब अभ्युपगम अथवा पूर्व मान्यताएँ हैं। क्योंकि यदि आत्मा आदि की पूर्व धारणाएँ ही न हों तो इस कथन की संगति ही नहीं बैठ सकती।
इन पूर्व मान्यताओं की कुछ विशेषताएँ हैं
(1) यह जीवन-व्यवहार को प्रभावित करती हैं। 1. हेमचन्द्राचार्य : योगशास्त्र, प्रकाश 1, श्लोक 54 2. These (Postulates of Morality) are, in very truth, 'the truths men
live-by' and for these truths to turn into error and illusion in our hands, is in a very real sense for us to cease to live.
-Urban : Fundamentals of Ethics, p. 357 3. नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्दहे।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ।। -उत्तराध्ययन सूत्र, 28/35