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________________ 136 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन जा एगदेसे अदढ़ा उ मडी, सीलप्पए सा उ करेइ कज्ज। जा दुब्बला संठविया वि संति, न तं तु सीलंति विसण्णदारुं॥ -व्यवहारभाष्य पीठिका, गाथा 181 (गाड़ी का कुछ भाग टूटने पर तो उसे फिर सुधारकर काम में लिया जा सकता है, किन्तु जो ठीक करने पर भी बार-बार टूटती जाय और बेकार बनी रहे, दुर्बल गाड़ी को कौन सँवारे? अर्थात् उसे सँवारने से क्या लाभ?) असफल प्रयत्न से विरत करने की यह सूक्ति गाड़ी के सटीक उपमान से कितनी प्रभावशाली बन गई है। सूक्ति शैली वेदों और उपनिषदों में मिलती है और फिर महाभारत जैसे महाकाव्य में श्लोकों द्वारा नीति शिक्षा दी गई है। इस प्रकार श्लोक शैली प्रचलित हुई। श्लोक शैली में बृहस्पतिनीति, शुक्रनीति आदि अनेक नीतिग्रन्थों की रचना हुई। यह श्लोक शैली लोकप्रिय भी हुई किन्तु सूत्रशैली की अपेक्षा कम लोकप्रिय हुई। श्लोक-शैली में ही भर्तृहरि का प्रसिद्ध नीति शतक लिखा गया। इसमें सभी श्लोक नीतिपरक हैं। एक श्लोक काफी होगा परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतये स पश्चात्संपूर्णः कलयति धरित्री तृण समाम्। अतश्चानैकान्त्याद् गुरुलघुतयार्थेषु धनिनामवस्था वस्तूनि प्रथयति च संकोचयति च ॥ -भर्तृहरि : नीतिशतक, 45 जब मनुष्य दरिद्री होता है तो मुट्ठी (पस्सा) भर जौ (खाद्यान्न) की इच्छा करता है और धनी बनने पर वही मनुष्य संपूर्ण पृथ्वी को भी तिनके के समान समझता है। इससे स्पष्ट है कि मनुष्य की विशेष अवस्थाएँ ही पदार्थ में अपनी लघुता या गुरुता के कारण भिन्नता पैदा करती हैं; कभी उन वस्तुओं को फैलाती और कभी सिकोड़ती हैं। वह श्लोक वस्तुगत तथा व्यक्तिगत अर्घ (value) के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डालता है, जो कि नीतिशास्त्र का एक प्रमुख प्रत्यय है। यह नीतिवचन श्लोक शैली में है। श्लोकशैली संस्कृत भाषा में चली। इसी के समानांतर प्राकृत भाषा में गाथा-शैली में भी नीति की सुन्दर शिक्षाएँ दी गईं। एक-दो उदाहरण काफी होंगे।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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