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134 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
दर्शनशास्त्र और न केवल तत्वविद्या तथा न केवल आचारशास्त्र; अपितु यह इन सबका समन्वित रूप है।
विज्ञान के रूप में यह आदर्शों और प्रत्यक्ष व्यवहार में तथा घटित घटनाओं का विश्लेषण करके कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करता है, दर्शनशास्त्र के रूप में यह नैतिक आदर्शों की संकल्पना करता है, तत्त्वविद्या के रूप में उन आदर्शों में निहित सिद्धान्तों की खोज करके उन्हें निश्चित करता है और आचारशास्त्र के रूप में उन आदर्शों को व्यावहारिक प्रयोग में लाता है।
अतः इसके (नीतिशास्त्र के) सम्पूर्ण अध्ययन के लिए समन्वयात्मक प्रणाली ही सक्षम हो सकती है।
समन्वयात्मक प्रणाली को ही पश्चिमी नीतिशास्त्रियों ने समीक्षात्मक प्रणाली कहा है। इसी प्रणाली का उपयोग यूनान के प्राचीनतम मनीषी सुकरात ने किया था। श्री जेम्स सेथ ने इस प्रणाली की प्रशंसा करते हुए कहा है
“नीतिशास्त्र की सच्ची प्रणाली सुकरात प्रणाली है, जिसमें व्यवस्थित करने के दृष्टिकोण से मानव के यथार्थ निर्णयों की सूक्ष्म और पूर्ण परीक्षा की जाती है।"
वुण्ट के अनुसार, सच्ची नैतिक प्रणाली वैज्ञानिक और दार्शनिक दोनों ही है। उसमें निरीक्षण भी है और अतदृष्टि भी, सामान्यीकरण भी है और चिन्तन भी, विश्लेषण भी है और मूल्यांकन भी, और अगमन (अपेक्षात्मक) भी है और निगमन (अनपेक्षात्मक) भी। इस प्रकार वह एक समन्वयात्मक प्रणाली है। उसमें वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रणालियाँ परस्पर निर्भर हैं।
नीतिशास्त्र विज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करता है, पर वहीं रुक नहीं जाता; बल्कि उससे ऊपर उठकर दर्शन के क्षेत्र में पहुंचता है। नैतिक चेतना मानव की विशेषता है जो उसे पशु और देवता से अलग करती है तथा पशुत्व से ऊपर उठाकर नैतिक मानव तक-नैतिकता की उच्चतम सीमा तक ले जाती हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि नीतिशास्त्र के अध्ययन की सर्वांगक्षम प्रणाली समन्वयात्मक प्रणाली है। इस बहुआयामी दृष्टिबिन्दु को जैन सिद्धान्त में अनेकांतवाद कहा है। इस अपेक्षा से समन्वयात्मक प्रणाली को अनेकान्तात्मक
1. The true method of Ethics is the Socratic method of a thorough
going and exhaustive cross-examinations of men's actual moral judgements with a view to their systemisation.
---Seth. J. : A Study of Ethical Principles p. 35